पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " ज्ञानी जब अहंकारी हो जाता है , तब उसके अंत:करण से करुणा नष्ट हो जाती है l उस स्थिति में वह औरों का मार्गदर्शन नहीं कर सकता , केवल मात्र दम्भ प्रदर्शन कर सकता है , जिससे लोग प्रकाश लेने की अपेक्षा पतित होने लगते हैं , ऐसी सर्वज्ञता का क्या लाभ ? " कहते हैं विधाता ने सत्य , धर्म , दान , तप और तीर्थ की रचना की , लेकिन तब भी मनुष्य सुखी नहीं हो पाया तब विधाता ने ' वशिष्ठ ' नाम से ज्ञान की रचना की l यह ज्ञान विवेक और दूरदर्शिता से अलंकृत था l अपनी सामर्थ्य देखकर ' वशिष्ठ ' को अहंकार आ गया , उसे भगवान श्रीराम पर से विश्वास उठ गया , वह स्वयं को भगवान समझने लगा l ज्ञान यदि अपने मार्ग से भटक जाए तो सत्य , धर्म ---- आदि सब विभूतियाँ व्यर्थ हो जाती हैं इसलिए उन्होंने ' वशिष्ठ को सजा दी और समझाया कि ज्ञान की सार्थकता निरहंकारिता में है l भगवान राम सर्वज्ञ थे लेकिन उन्होंने अपना सौम्य , उदार और करुणाजनक स्वाभाव बनाए रखा और जन - जन को अपने आचरण से शिक्षण दिया l