बात 1937 की है l खादी ग्रामोद्दोग संघ के अनुभवी लोकसेवी कार्यकर्ता श्री कृष्णदास जाजू को महात्मा गाँधी ने महत्वपूर्ण वार्ता के लिए सेवाग्राम बुलाया l उस समय मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री को किसी वजह से त्यागपत्र देना पड़ा था , अत: सरदार पटेल उनके स्थान पर श्री कृष्णदास जाजू को मुख्य मंत्री बनाना चाहते थे l उनका स्वभाव वे जानते थे अत: उन्होंने गांधीजी से उन्हें इसके लिए तैयार करने को कहा l बापू के मुख से मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनने की अनपेक्षित बात सुनकर वे हतप्रभ हो गए l उन्होंने अपनी असमर्थता जाहिर की और बोले --- बापूजी मैं तो कांग्रेस का सदस्य तक नहीं हूँ , फिर ये कैसे संभव है कि मैं प्रदेश की किसी विधान सभा का नेता बन जाऊं और वरिष्ठ सदस्य देखते रह जाएँ l
गांधीजी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि कोई वरिष्ठ सदस्य आपत्ति नहीं करेंगे l किन्तु श्री जाजू ने कहा --- " आप कोई और आदेश दे दे , मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा पर मुझे पद - प्रतिष्ठा के दलदल में न डालिए l " इतने पर भी गांधीजी का आग्रह बना रहा l वे बापू के सामने इस संबंध में कुछ बोले नहीं l उनको इस संबंध में विचार करने की बात कहकर लौट आये l कुछ दिनों बाद उन्होंने सेवाग्राम को एक मार्मिक पत्र प्रेषित किया जिसमे लिखा ---- " मैं कार्यकर्ता बनना चाहता हूँ नेता नहीं l इसके लिए मुझमे वैसी योग्यता का भी अभाव है l मुझे अपने आपको रचनात्मक कार्य में खपाना कहीं अधिक पसंद है अपेक्षाकृत प्रशासन का भार ग्रहण करने के l "
इसी तरह उनके सामने राज्यपाल बनने का प्रस्ताव भी रखा गया , अन्य पद सम्मान के अवसर आये किन्तु इन सब को ढोने के बजाये उन्हें विनम्र स्वयंसेवक बनना अधिक महत्वपूर्ण लगा वे कहा करते थे ----- किसी समाज , राष्ट्र व संस्था का जीवन , प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि उसके पास निष्ठावान स्वयंसेवक कितने हैं l व्यवस्थापकों , प्रशासकों की बदौलत न संस्थाएं जीवित रहती हैं और न राष्ट्र l ' उन्होंने इस आदर्श को निभाया और बड़े पद धारी की अपेक्षा ठोस कार्य किया l
गांधीजी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि कोई वरिष्ठ सदस्य आपत्ति नहीं करेंगे l किन्तु श्री जाजू ने कहा --- " आप कोई और आदेश दे दे , मैं सहर्ष स्वीकार करूँगा पर मुझे पद - प्रतिष्ठा के दलदल में न डालिए l " इतने पर भी गांधीजी का आग्रह बना रहा l वे बापू के सामने इस संबंध में कुछ बोले नहीं l उनको इस संबंध में विचार करने की बात कहकर लौट आये l कुछ दिनों बाद उन्होंने सेवाग्राम को एक मार्मिक पत्र प्रेषित किया जिसमे लिखा ---- " मैं कार्यकर्ता बनना चाहता हूँ नेता नहीं l इसके लिए मुझमे वैसी योग्यता का भी अभाव है l मुझे अपने आपको रचनात्मक कार्य में खपाना कहीं अधिक पसंद है अपेक्षाकृत प्रशासन का भार ग्रहण करने के l "
इसी तरह उनके सामने राज्यपाल बनने का प्रस्ताव भी रखा गया , अन्य पद सम्मान के अवसर आये किन्तु इन सब को ढोने के बजाये उन्हें विनम्र स्वयंसेवक बनना अधिक महत्वपूर्ण लगा वे कहा करते थे ----- किसी समाज , राष्ट्र व संस्था का जीवन , प्रगति इस बात पर निर्भर करती है कि उसके पास निष्ठावान स्वयंसेवक कितने हैं l व्यवस्थापकों , प्रशासकों की बदौलत न संस्थाएं जीवित रहती हैं और न राष्ट्र l ' उन्होंने इस आदर्श को निभाया और बड़े पद धारी की अपेक्षा ठोस कार्य किया l