पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- " शक्ति और सामर्थ्य का प्रदर्शन , अहंकार और दंभ प्रदर्शन के लिए नहीं होना चाहिए , बल्कि इसका नियोजन मानवता के कल्याण और विकास के लिए करना चाहिए l सामर्थ्य के संग जब अहंकार जुड़ता है , तो विनाश होता है और सामर्थ्य के संग जब संवेदना जुड़ती है , तो विकास होता है l " एक कथा है ------ राजा सुरथ हिमवान नामक राज्य के राजा थे l उनका मन बड़ा कोमल था l एक बार उन्होंने एक अपराधी को किसी कारण दण्डित किया तो उसे दंड पाते देख राजा का मन बहुत व्याकुल हो गया और ये सोचकर कि राजा होने पर दंड तो देना ही पड़ेगा , वे राज्य छोड़कर तपस्या के लिए निकल पड़े l एक दिन वन में तपस्या करते हुए उन्होंने देखा कि एक बाज अपने पंजों में तोते के बच्चे को ले जा रहा है l करूणावश उन्होंने एक पत्थर बाज को मारा , जिससे तोते का बच्चा तो बच गया , परन्तु बाज के प्राण निकल गए l अपने हाथों द्वारा पुन: हुई हिंसा को देखकर उनका मन काँप उठा l उसी समय महामुनि मांडव्य वहां आ निकले l उन्होंने राजा की मनोव्यथा को समझ लिया , वे राजा से बोले --- " राजन ! यदि न्याय न किया जाये , कठोरता न बरती जाये तो दुराचारी लोग सज्जनों पर आतंक स्थापित करेंगे और अधर्म का बोलबाला होगा l इसलिए अपने मन में से ये भाव निकाल कर तुम निष्काम भाव से प्रजा की सेवा करो l " ऋषि ने पुन: कहा --- " यदि किसी के प्रति व्यक्तिगत वैरभाव से तुम उसे दंड दे रहे हो तो ये हिंसा है इसलिए ध्यान रखो कि व्यक्तिगत वैरभाव से किसी को दंड नहीं दो l राजा होने के नाते राज्य में सुशासन स्थापित करना तुम्हारा दायित्व है l " राजा को ऋषि का कथन समझ में आ गया और पुन: राज्य में आकर उसने निष्काम भाव से प्रजा की सेवा की l