कोई कितना ही सद्गुण संपन्न और सन्मार्ग पर चलने वाला क्यों न हो , यदि वह अत्याचारी और अन्यायी का साथ देता है तो वह उसके द्वारा किये जाने वाले पापकर्म का साझेदार हो जाता है , फिर वह ईश्वरीय दंड से बच नहीं सकता l महाभारत में कर्ण का चरित्र कुछ ऐसा ही था --- कर्ण महारथी था , महादानी था l यह जानते हुए कि स्वयं इंद्र उसके कवच - कुण्डल मांगने आये हैं , उसने अपने जन्मजात कवच - कुण्डल उन्हें दान में दे दिए l विपरीत परिस्थितियों में दुर्योधन ने उसकी मदद की , उसे सम्मान दिया , तो कर्ण ने अंतिम सांस तक अपने मित्र धर्म को निभाया l जब अर्जुन के साथ कर्ण का युद्ध हुआ तो कर्ण के बाणों से अर्जुन का रथ दो - ढाई गज पीछे चला जाता था , तब भगवान कृष्ण कहते वाह ! कर्ण वाह ! वे अर्जुन से कहते कि देखो पार्थ ! कर्ण महारथी है , कितना वीर है , उसके प्रहार से तुम्हारा रथ कितना पीछे खिसक जाता है l बार - बार कर्ण की प्रशंसा सुनते - सुनते आखिर अर्जुन कृष्ण से कहने लगे ---- " भगवन ! मेरे बाणों के प्रहार से भी तो कर्ण का रथ पीछे चला जाता है , पर इतना दिल खोल कर आप मेरी तारीफ नहीं करते l " तब भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं --- अर्जुन ! तीनों लोकों का भार लेकर मैं स्वयं तुम्हारे रथ पर हूँ , रथ की ध्वजा पर अजेय और धर्म के प्रतीक महावीर हनुमान हैं , माँ भगवती दुर्गा का आशीर्वाद है तुम्हारे साथ l तुम स्वयं सोचो , इतना बल है तुम्हारे साथ , फिर भी कर्ण के प्रहार से यह रथ पीछे चला जाता है और कर्ण के रथ पर तो केवल सारथी के रूप में शल्य हैं और वह भी निरंतर निंदा कर के उसके आत्मबल को कमजोर कर रहे हैं l कर्ण महारथी है , वीर है, महादानी है लेकिन उसने अत्याचारी और अन्यायी दुर्योधन का साथ दिया है l द्रोपदी का चीर -हरण , अभिमन्यु वध , भीम को विष देना , लाक्षागृह को जलाना आदि अनेक ऐसे पापकर्म किए जाने पर भी वह मूक दर्शक बना रहा , दुर्योधन का ही साथ दिया , इसलिए उसकी पराजय, उसका अंत निश्चित है l
29 November 2020
28 November 2020
WISDOM -----
किसी समय महर्षि रमण से पश्चिमी विचारक पॉल ब्रन्टन ने पूछा था ---- " महत्वाकांक्षा की जड़ क्या है ? " तब महर्षि हँसकर बोले ---- " हीनता का भाव , अभाव का बोध l " पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' मनुष्य जिन बड़ी से बड़ी बीमारियों और विक्षिप्तताओं से परिचित है , महत्वाकांक्षा से बड़ी बीमारी इनमें से कोई नहीं है l हीनता स्वयं से छुटकारा पाने की कोशिश में महत्वाकांक्षा बन जाती है l बहुमूल्य से बहुमूल्य साज - सज्जा के बावजूद यह न तो मिटती है और न ही नष्ट होती है l थोड़ी देर के लिए यह हो सकता है कि वह दूसरों की दृष्टि से छिप जाए , लेकिन अपने आपको लगातार उसके दर्शन होते रहते हैं l किसी चकाचौंध वाली सफलता के मिलने के बावजूद यह हीनता का भाव नष्ट नहीं होता l ' आचार्य श्री आगे लिखते हैं ---- हीन भाव की ग्रंथि से पीड़ित चित्त उसे छिपाने और भूलने की कोशिश में महत्वाकांक्षा से भर जाता है l महत्वाकांक्षा के ज्वर से पीड़ित व्यक्ति के पास सफलता तो आ जाती है , पर हीनता तो मिटती नहीं l विश्व का ज्यादातर इतिहास ऐसे ही बीमार लोगों से भरा पड़ा है l तैमूर , सिकंदर या हिटलर इसी ज्वर से पीड़ित थे l आचार्य श्री कहते हैं --- थोड़े बहुत रूप में इस बीमारी के कीटाणु सब में हैं l प्राय: सभी इस रोग से संक्रमित हैं l मनुष्य - मनुष्य के बीच सांसारिक संघर्ष का कारण यही है और युद्ध इसी का व्यापक रूप है l
27 November 2020
WISDOM -----
परमात्मा ने चींटी से लेकर हाथी तक की सृष्टि रचना कर डाली l तब तक सृष्टि में न कोई उत्पात खड़ा हुआ न झंझट खड़ा हुआ l न ईश्वर से कोई कुछ मांगता न कोई शिकायत करता l किन्तु जब से वह मनुष्य की रचना कर चुका , तो उस दिन से परमात्मा बड़ा हैरान , बड़ा परेशान रहने लगा l नित नए उपद्रव , दंगे - फसाद , शिकायतों फरियादों का ताँता लग गया l सब काम रोककर शिकायतें निबटाते ही दिन बीतता l एक दिन परमात्मा ने देवताओं की बैठक बुलाई और कहा कि हमसे जीवन में पहली बार इतनी बड़ी भूल हुई है जितनी कभी नहीं हुई l अनेकों जीवों की रचना की , तब तक हम बड़े चैन से थे , किन्तु जब से मनुष्य की रचना की पूरी मुसीबत खड़ी हो गई l नित्य ही दरवाजे पर मांगने वालों और फरियाद करने वालों की भीड़ जमा रहने लगी है l अब कोई उपाय भी नहीं सूझता कि क्या किया जाये ? कोई ऐसी जगह बताओ जहाँ मैं छिपकर बैठ जाऊं l सब देवताओं ने सुझाव दिए , किसी ने कहा क्षीरसागर में , किसी ने कहा हिमालय पर तो किसी ने कहा चन्द्रमा में छुप जाओ l भगवान ने कहा , मनुष्य की अक्ल इतनी पैनी है कि वह आकाश , पाताल में कहीं भी पहुँच सकता है l तब देवर्षि नारद आए बोले --- " भगवन ! मनुष्य के दिल में छुपकर बैठ जाइये l इसकी आँखें बाहर देखती हैं l यह चारों ओर खोजता फिरेगा अपने अंदर यह कभी आपको खोजेगा ही नहीं l ' कहते हैं जबसे भगवान मनुष्य के हृदय में छिपकर बैठें हैं l जो इस रहस्य को जनता है वही उन्हें खोज पाता है l
26 November 2020
WISDOM -----
श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं --- मैं दमन करने की अमोघ शक्ति हूँ l मुझसे कोई बच नहीं सकता l भगवान कहते हैं ---दमन पाशविक भी है और ईश्वरीय विभूति भी है l भगवान कहते हैं --- दमन यदि विवेकहीन , औचित्यहीन व नीतिहीन हो तो यह आसुरी एवं पाशविकता का परिचय प्रदान करता है l घोर संकट का कारण बन जाता है तथा मनुष्य , समाज एवं सृष्टि को भारी क्षति पहुंचाता है l भगवान आगे कहते हैं --- यदि अन्याय , अनीति , अत्याचार , दुराचार , शोषण , भ्रष्टाचार का दमन किया जाता है तो दमन ईश्वरीय विभूति के रूप में अलंकृत होता है l जो इसे करने का साहस दिखाता है , दंड उसके हाथों में ईश्वरीय शक्ति के रूप में शोभित होता है l भगवान शिव का त्रिशूल , महाकाली का खड्ग , भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र , श्रीराम का धनुष , इंद्र का वज्र , परशुराम का परशु , यमराज का पाश और हनुमान जी की गदा ऐसे ही ईश्वरत्व को प्रकट करते है l शक्ति जब असुरों के हाथ में आ जाती है तो वे उसका दुरूपयोग कर अत्याचार और अन्याय करते हैं लेकिन वही शक्ति जब देवताओं के हाथ में आ जाती है तो वे उसका सदुपयोग करते हैं , लोक कल्याण के कार्य करते हैं , प्रजा को सुख - शांति मिलती है l
25 November 2020
WISDOM -----
महाराज ययाति को भोगों को भोगते हुए जीवन के सौ वर्ष कब पूरे हो गए , पता भी नहीं चला l यमदेव उन्हें लेने आ गए l उन्होंने यमदेव से प्रार्थना की ---- " मेरी सभी इच्छाएं अधूरी हैं , कृपया मुझे जीवनदान देने की कृपा करें " यमदेव बोले --- " यदि आपके सौ पुत्रों में से कोई एक भी पुत्र अपना यौवन आपको दे दे औ आपकी इच्छा पूर्ण हो सकती है l " कामग्रस्त ययाति ने अपने पुत्रों को बुलाकर उनसे यौवन की भीख मांगी l सभी ने मन कर दिया , केवल एक पुत्र तैयार हो गया l यमदेव को इस पर आश्चर्य हुआ और उन्होंने उससे ऐसा करने के पीछे का कारण पूछा l वह बोला ----- " जब सौ वर्षों के भोग से भी पिताजी की तृप्ति नहीं हो सकी तो मेरी कैसे होगी ? भोगों में समय गंवाना व्यर्थ है l " यमदेव ने प्रसन्न होकर उसे जीवनमुक्ति का आशीर्वाद दिया l सौ वर्ष पूर्ण हो जाने पर फिर ययाति के सामने यम प्रकट हुए तो ययाति ने पुन: वही याचना की l इन सौ वर्षों में उनके द्वारा पैदा हुए पुत्रों में से एक ने अपनी आयु उन्हें दे दी l इस तरह ययाति को दस बार जीवनदान मिला , वे एक हजार वर्ष तक जिए और विलास में रत रहे l अंतत: उन्हें पश्चाताप हुआ और वे समझ पाए कि भोगों की तृप्ति कभी नहीं होती l उन्हें नरक में घोर कष्ट भोगना पड़ा l ययाति की ये कथा ढलती उम्र के लोगों के लिए एक प्रेरणा है l
WISDOM ----
एक बार की बात है यमराज और उनके दूत धरती से आत्माओं को ले जाते , ढोते बहुत थक गए l युगों से यह कार्य कर रहे थे , किसी भी दिन कोई छुट्टी नहीं l उन्होंने महाराज से कुछ दिनों की छुट्टी माँगी l महाराज ने पहले तो मना किया , लेकिन पहली बार छुट्टी मांगी , तो देनी पड़ी l अब महाराज ने सोचा कि थोड़े दिनों की ही तो बात है क्यों न मृत्यु का ठेका कुछ मनुष्यों को सौंप दिया जाये l बहुत सोच - विचार के यह ठेका उन लोगों को सौंप दिया जो संपन्न थे , उम्मीद थी कि किसी लालच में नहीं आएंगे l लेकिन मनुष्य के लालच और तृष्णा का कोई अंत नहीं l ठेका मिलते ही उन्होंने मृत्यु को भी व्यापार बना दिया और उनकी तथा उनके आधीन काम करने वालों की सम्पति दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ गई l इतने लोग मरने लगे कि संसार में हाहाकार मच गया l न केवल संसार में बल्कि ऊपर ब्रह्माण्ड में भी हाहाकार मच गया l यमराज जब आत्माओं को ले जाते थे तो न्याय होता था , कर्म के अनुसार स्वर्ग , नरक मिलता था लेकिन यमराज के छुट्टी लेने से आसुरी शक्तियां क्रियाशील हो गईं l अनेक अच्छी और बुद्धिमान आत्माओं को असुरों ने अपने कब्जे में कर लिया और उन्हें पीड़ित कर , जबरन दबाव बनाकर उनकी बुद्धि का उपयोग कर के संसार में असुरता का तांडव मचा दिया l गेहूं के साथ घुन भी पिसता है , संसार में अच्छे - बुरे सब अनेक परेशानियों में घिर गए , बहुत परेशान हुए l सबकी प्रार्थनाओं से शेषनाग पर शयन कर रहे भगवान भी जाग गए l उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र को भेजकर श्रेष्ठ आत्माओं को असुरता के चंगुल से मुक्त कराया l जब भी संसार में असुरता , अन्याय और अत्याचार बढ़ जाता है तब ईश्वर युग के अनुरूप अपने प्रयास से असुरता का अंत करते हैं l
WISDOM ----
श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान अर्जुन को अपनी विशिष्ट विभूतियों के बारे में बताते हैं l---- मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम को भगवान शस्त्र धारण करने वालों में अपना स्वरुप बताते हैं l भगवान कहते हैं ----- श्रीराम अति विनम्र , शिष्ट , मर्यादापूर्ण हैं l वे क्रोधित भी नहीं होते l उनके मन में न तो किसी के लिए हिंसा है , न ईर्ष्या , न किसी से शत्रुता , न प्रतिस्पर्धा l वे न तो किसी को दुःख देना चाहते हैं और न पीड़ा पहुँचाना चाहते हैं l विध्वंसकारी शस्त्र भी यदि श्रीराम के हाथ में होंगे , तो वे सृजन का ही माध्यम बनेंगे l इसलिए श्रीराम शस्त्रधारी होने पर भी मर्यादा पुरुषोत्तम हैं , भगवान हैं l वे अतुलनीय हैं , मर्यादा व लोकहित के शिखर हैं l शस्त्र यदि रावण के हाथ में होंगे तो विनाश तय है क्योंकि उसके भी तर सिवाय दुर्गुणों के , लोभ , लालच , कामुकता , हिंसा के सिवाय और कुछ नहीं है l वह अपने शस्त्रों का जब भी प्रयोग करेगा , गलत ही करेगा l उसके द्वारा विनाश के सिवाय अन्य कुछ भी संभव नहीं है l गीता का शिक्षण हर युग के लिए है l आज संसार में आसुरी शक्तियां इतनी प्रबल होती जा रही हैं l हमें विवेकवान होने की जरुरत हैं , हम देखें कि हमारी योग्यता का लाभ कौन उठा रहा है , हम किसे शक्तिशाली बना रहे हैं -- राम को या रावण को ? यदि हमें तत्काल लाभ चाहिए तो निश्चित है कि हम असुरता का चयन करेंगे , फिर उसका परिणाम चाहे जो हो l ईश्वर ने हमें चयन की स्वतंत्रता दी है l सही मार्ग का चयन करने के लिए हम ईश्वर से सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करें l
24 November 2020
WISDOM ------
अत्याचारी और अन्यायी को यदि सत्ता का संरक्षण प्राप्त हो तो उसके परिणाम घातक होते हैं और उसका सामना करने के लिए धैर्य और विवेक की जरुरत है l महाभारत में एक प्रसंग है ----- राजा विराट का सेनापति था कीचक l बहुत शक्तिशाली था और उसकी गलतियों पर उसे मना करने और समझाने की राजा विराट में हिम्मत नहीं थी l पांचों पांडव और द्रोपदी अज्ञातवास के दौरान राजा विराट के यहाँ वेश बदलकर रह रहे थे l महारानी द्रोपदी ' सैरन्ध्री ' नाम से रनिवास में रानी की सेवा करती थीं l कीचक , राजा विराट की पत्नी का भाई था इसलिए रनिवास में बेरोक -टोक आता जाता था l जब से उसकी नजर सैरंध्री पर पड़ी , उसके मन में पाप आ गया और वह सैरंध्री से अनुचित व्यवहार करने लगा l एक दिन एकांत पाकर द्रोपदी ने अपना दुःख भीम से व्यक्त किया कि किस प्रकार कीचक उसे अपमानित करता है l भीम को बहुत क्रोध आया लेकिन उन्होंने द्रोपदी को समझाया कि कीचक बहुत बलशाली है , राजा विराट स्वयं उससे डरते हैं , उसे सत्ता का संरक्षण प्राप्त है इसलिए तुम उसका मुकाबला नहीं कर सकतीं , उसका अंत करने के लिए धैर्य और विवेक से कोई तरकीब सोचनी पड़ेगी l फिर भीम की सलाह के अनुसार दूसरे दिन जब कीचक सैरंध्री के सामने आया तो सैरंध्री ने उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे वे उसके प्रस्ताव से सहमत हों साथ ही यह शर्त रखी कि वह अर्धरात्रि में नृत्यशाला में आये , चारों और घना अंधकार हो जिससे कोई देख न सके , लोक लाज का डर है l वहीँ सैरंध्री उसका इंतजार करेगी l जब रात्रि में कीचक नृत्यशाला पहुंचा तो वहां द्रोपदी के स्थान पर भीम बैठे थे , उन्होंने कीचक को ललकारा , फिर दोनों में मल्ल्युद्ध हुआ l बृहन्नला के वेश में अर्जुन मृदंग बजाते रहे , जिससे युद्ध का शोर बाहर न जाये , सुबह होने से पूर्व ही भीम ने कीचक का वध कर दिया ll
WISDOM -----
एक संत प्रवचन दे रहे थे , सुनने आये श्रद्धालुओं ने उनके सम्मुख एक समस्या रखी l वे बोले --- " महाराज ! हमारे मन में कइयों के प्रति द्वेष है , उसे कैसे निकालें ? " संत बोले --- ' आप लोग ऐसा करना कि कल अपने साथ थैला भरकर आलू लाना और हर आलू पर उस व्यक्ति का नाम लिखना , जिससे आपको द्वेष हो l " अगले दिन सभी श्रद्धालु अपने साथ आलू भरा थैला लेकर आए , सबने अनेक आलुओं पर उन व्यक्तियों के नाम लिखे थे , जिनसे उनको द्वेष था l संत बोले --- " अब ऐसा करना कि इस थैले को दिन - रात अपने पास रखना , छोड़ना नहीं l " सत्संग में आए सभी श्रद्धालुओं ने इस निर्देश का पालन करना शुरू कर दिया l दो - तीन दिन तो विशेष समस्या नहीं हुई , परन्तु सप्ताह अंत होते तक आलुओं में से भयंकर दुर्गन्ध आने लगी l अब सब लोग बड़े चिंतित हुए और संत के पास जाकर बोले ---- " महाराज ! आपने भी यह कैसा विचित्र कार्य हमें करने को दिया है l इन बदबूदार आलुओं को हमें कब तक अपने साथ रखना है ? " संत बोले ----- "आप लोग ये सोचो कि जब इन नाम लिखे आलुओं को हफ्ते भर साथ रखने में इतनी दुर्गन्ध उठती है तो जब इन व्यक्तियों के नामों को ईर्ष्या और द्वेष के साथ अपने अंतर्मन में रखते होंगे तो आपके चित्त से कितनी दुर्गन्ध उठती होगी ! जब भावनाएं कलुषित होंगी तो मन को भारी ही बनाएंगी , हलका नहीं l " संत द्वारा दिए गए कार्य का उद्देश्य समझ में आ जाने पर सबको जीवन के लिए एक महत्वपूर्ण सीख मिल गई l
23 November 2020
WISDOM -----
एक बार महामना पं. मदनमोहन मालवीय जी के पास एक धनी सेठ आए l उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे अपना धन भिखारियों में बाँट सकते हैं , पुण्यार्जन की दृष्टि से चींटियों को दाना खिलाने के लिए कर्मचारियों को ढेरों की संख्या में लगा सकते हैं , पर लोकमंगल के लिए उन्होंने न कभी कुछ खर्च किया है , और न करेंगे l मालवीय जी उन दिनों काशी हिंदू विश्वविद्दालय का निर्माण करा रहे थे l संयोग से जिस लड़के से सेठ जी की लड़की का विवाह था , वह उनका विद्दार्थी भी था l उन्होंने कहा आप विवाह में जो राशि खर्च कर रहे हैं , मैंने सुना है वह लाखों में है l उसके बदले आप लड़के के नाम कुछ राशि जमा कर दें व उसे स्वावलंबी बनने दें l वह मेहनती है , अपना संसार खुद बना लेगा l पर जो राशि आप उस प्रदर्शन में खर्च करेंगे उससे तो किसी का लाभ नहीं होगा , आपकी कन्या के लिए विवाहोपरांत कष्ट का कारण अवश्य बन सकता है l इस राशि को आप हमें दहेज़ में दे दें ताकि उससे हिंदू विश्वविद्दालय का बाकी काम पूरा हो सके l लड़के का गुरु होने के नाते मैं यह दक्षिणा लोकमंगल के लिए आपसे मांग रहा हूँ l उनका कहना भर था और उस कंजूस सेठ का बदलना l न केवल आदर्श विवाह उन्होंने किया , कई भवन विश्वविद्दालय के लिए बनवा भी दिए l महामना की साख, उनकी सच्चाई और कार्य के प्रति समर्पण और ईमानदारी ने यह चमत्कार कर दिया l
22 November 2020
WISDOM ----- सत्ता का नशा संसार की सौ मदिराओं से भी बढ़कर है
ऐश्वर्य और सत्ता का मद जिन्हे न आए ऐसे विरले ही होते है l इसके नशे में व्यक्ति वह कामना भी करने लगता है जिस पर उसका कोई हक नहीं है l हमारे पुराणों में अनेक कथाएं हैं जो हमें शिक्षा देती हैं कि सफल होने पर हमें सफलता के मद में नहीं डूबना चाहिए , विवेकपूर्ण तरीके से जीवन जीना चाहिए ------ राजा नहुष को पुण्यफल के बदले इंद्रासन प्राप्त हुआ l स्वर्ग का वैभव पाकर वे भोग - विलास में लिप्त हो गए l उनकी दृष्टि रूपवती इन्द्राणी पर पड़ी l वे विचार करने लगे कि जब वे इंद्रासन पर हैं तो इंद्राणी को अपने अंत:पुर में ले आएं l इस आशय का प्रस्ताव उन्होंने इंद्राणी के पास भेजा l राजाज्ञा के विरुद्ध खड़े होने का साहस उन्होंने अपने में नहीं पाया तो देवगुरु से परामर्श किया तो उन्होंने इस संबंध में बहुत होशियारी , विवेक और धैर्य से काम लेने को कहा l इंद्राणी ने नहुष के पास संदेश भिजवाया कि यदि वे सप्त ऋषियों को पालकी में जोतें और उस पर चढ़कर मेरे पास आएं तो मैं उनका प्रस्ताव स्वीकार कर लूंगी l आतुर नहुष ने अविलंब वैसी व्यवस्था की , ऋषि पकड़ बुलाए और उन्हें पालकी में जोत दिया और नहुष पालकी पर चढ़ बैठे l उनके लिए तो एक - एक पल एक युग के समान था , ऋषियों को बार -बार हड़काने लगे --- 'जल्दी चलो --- जल्दी चलो ! दुर्बलकाय ऋषि इतनी दूर तक इतना बोझा ढोने में समर्थ न हो सके l अपमान और उत्पीड़न से क्षुब्ध हो उठे और एक ने कुपित होकर शाप दे दिया --" दुष्ट ! तू स्वर्ग से पतित होकर , पुन: धरती पर सर्प योनि में जा गिर " बेचारे नहुष धरती पर दीन - हीन की तरह विचरण करने लगे l सत्पुरुषों का तिरस्कार करने और उन्हें सताने से नहुष की दुर्गति हुई l
21 November 2020
WISDOM ------- अधर्म और अनीति का साथ देने वाले कितने भी सामर्थ्यवान , शक्तिशाली एवं प्रखर योद्धा क्यों न हों , उनका पराभव सुनिश्चित है
जब दुर्योधन ने पांडवों को सुई की नोक बराबर भूमि भी देने से इनकार कर दिया तब महाभारत का होना निश्चित हो गया l कर्ण के लिए विपरीत समय में काम आने वाले दुर्योधन का मित्रधर्म सर्वोपरि था l वो किसी भी कीमत पर अर्जुन को परास्त कर के अपने मित्रधर्म से उऋण होना चाहता था परन्तु ऐसा हो नहीं पा रहा था l अर्जुन के सामने पराजय का सामना करना पड़ता था l इसलिए इस समस्या पर भीष्म पितामह के मनोभाव जानने के लिए वह उनके पास गया l कर्ण ने कहा ----- " हे पितामह ! युद्ध में तो केवल उसी की जीत होती है जिसके योद्धा युद्ध कौशल में निपुण एवं अति साहसी हों l जिसके पक्ष में आप जैसा सेनापति हो , आचार्य द्रोण के समान शस्त्रवेत्ता हो , कृपाचार्य के समान कूटनीतिज्ञ हो , अश्वत्थामा , दुर्योधन, दु:शासन तथा मुझ जैसा धर्नुधर हो , कैसे भला कोई हमें परास्त कर सकता है l हमारे पास तो तमाम राज्यों की सेनाएं हैं , कृष्ण की ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएं भी हमारे साथ हैं l हमें किस बात की चिंता , हम तो अजेय और अपराजेय हैं l पांडवों के पास क्या है , कृष्ण हैं , वे भी निहत्थे , अस्त्र -शस्त्र न उठाने की उन्होंने प्रतिज्ञा की है l ऐसे में क्या हमारी जीत सुनिश्चित नहीं है ? " पितामह कुछ देर मौन रहे फिर बोले --- " वत्स कर्ण ! तुम श्री कृष्ण को निहत्था समझने की महान भूल कर रहे हो l उन्हें समझ पाना मानवीय बुद्धि की सीमा से परे है l तुम्हारी बुद्धि उस दिव्य एवं अदृश्य तत्व को परख नहीं पा रही है जो उनको एक सुरक्षा कवच से आच्छादित किए हुए है और उनका कवच है उनके कृष्ण , उनका धर्म ! धर्म की ही जीत होगी l जहाँ धर्म है , वहीँ श्रीकृष्ण हैं इसलिए अर्जुन जीतेगा l कौरव अधर्म के साथ खड़े हैं , अधर्म को पराजय का सामना करना पड़ेगा l "
20 November 2020
WISDOM ----- जो अहंकार से पीड़ित हैं , वे अपने मन में उतने ही ज्यादा असुरक्षित हैं
पुराणों में एक कथा है --- एक राजा था महिषध्वज , बहुत अहंकारी था l यह अहंकार उसे अपने पिता व दादा से विरासत में ही मिला था l वह कहता था कि मैंने ही गरीबों को धन दिया , भूखों का पेट भरा , मेरे कारण न जाने कितने घरों में चूल्हा जलता है l मैं ही सबका आश्रयदाता हूँ इसलिए लोग मुझे भगवान के समान पूजते हैं l जबकि सच यह था कि उसके हृदय में संवेदना नहीं थी l उसके विरुद्ध कोई दो शब्द भी बोलता , झुककर बात नहीं करता तो वह उसे दण्डित करता l औरों की पीड़ा उसे पीड़ित नहीं करती , उसे तो केवल अपने सुख - दुःख की परवाह थी l इसलिए लोग अपनी जान बचाने के लिए उसकी प्रशंसा कर दिया करते थे जिसे महिषध्वज सच मान लेता था l अहंकार में आधिपत्य की चाहत होती है इसलिए वह आसपास के राज्यों पर भी अपना अधिकार कर उन्हें अपने आतंक के नीचे रखना चाहता था l संयोग से एक संत धृतव्रत उस रियासत से होकर गुजर रहे थे , उनकी भेंट महिषध्वज से हुई l इन संत के पिता भी एक रियासत के राजा थे लेकिन संत ने अपनी रियासत अपने भाइयों को सौंप दी और स्वयं संत बन गए l महिषध्वज के कहने पर वे कुछ दिन उसकी रियासत में व्यतीत करने को तैयार हो गए l संत प्रात: उठकर बीमार लोगों की सेवा करते , असहायों की सहायता करते , दीन - दुःखियों का दर्द बांटते l उनके इस आत्मीय व्यवहार से राजा के आतंक से पीड़ित जनता में नई ऊर्जा का संचार हुआ l अब तो संत के द्वार विशाल जनसमूह अपने कष्टों के निवारण का मार्ग पूछने और जीवन के लिए सही मार्गदर्शन पाने के लिए इकट्ठा होने लगा l संत धृतव्रत की बढ़ती लोकप्रियता से राजा को बड़ी असुरक्षा हुई l उन्होंने संत से कह दिया कि प्रजा उसी पर आश्रित है और उसे भगवान की तरह पूजती है l संत ने कहा --- राजन ! तुम्हारे मन में भ्रम है कि यहाँ आता विशाल जनसमूह तुम्हारे साम्राज्य को चुनौती दे रहा है l तुम्हे यह विचारने की आवश्यकता है कि तुम्हारे राजा होते हुए ये सारा जनसमूह मेरे द्वार पर किस आशा के साथ खड़ा है ? न मेरे पास कोई धन है , न कोई अधिकार , फिर इन्हे यहाँ आने के लिए कौन सा कारण प्रेरित कर रहा है ? राजा महिषध्वज के पास इसका कोई उत्तर न था l संत धृतव्रत बोले ---- " मानवीय सम्बन्ध प्रेम के आधार पर खड़े होते हैं l यदि तुम यह चाहते हो कि लोग तुम्हे हृदय से चाहें तो उनके कष्ट के निवारण के लिए हृदय से प्रयास करना सीखो l यदि संबंधों का आधार स्नेह ,प्रेम और िश्वास हो तो तुम्हारी प्रजा भी तुम्हारे प्रति श्रद्धा और आदर का भाव रखने लगेगी l संत के विचारों से राजा बहुत प्रभावित हुआ , उसका आचरण बदलने लगा , अब उसके राज्य में आतंक के स्थान पर संवेदना का वातावरण था l अब प्रजा के हृदय में भी उसके लिए आदर भाव था l
WISDOM ------ मेघनाद क्यों हारा ?
हमारे महाकाव्य हमें जीवन जीने की कला सिखाते हैं , उचित -अनुचित और अच्छे - बुरे का भान कराते हैं l इनके अध्ययन - मनन से हमें अपने जीवन में सही दिशा चुनने की समझ आती है l ---- रावण का पुत्र था --मेघनाद l उसकी पत्नी का नाम था सुलोचना l राक्षस कुल में रहकर भी उसके जैसी महान पतिव्रता का होना एक आश्चर्य था l सुलोचना ने जीवन भर पतिव्रत धर्म की साधना कर मेघनाद को वह बल प्रदान किया था कि उसके आगे देवता भी नहीं टिकते थे l उसने स्वर्ग के राजा इंद्र को पराजित किया और इंद्रजीत कहलाया , जैसे मेघ गरजते हैं वैसी ही उसकी गर्जना थी , इसलिए वह मेघनाद था l राम - रावण के युद्ध में जब मेघनाद सेनापति बना , तब भगवान राम ने उससे युद्ध करने के लिए लक्ष्मण जी को भेजा l लक्ष्मण जी महारथी थे l मेघनाद ने शक्ति का प्रयोग किया , इस कारण वे मूर्छित हो गए l लेकिन श्री हनुमान जी द्वारा लाई गई संजीवनी बूटी और उनकी पत्नी उर्मिला के पतिव्रत धर्म की ताकत से लक्ष्मण जी को जीवन दान मिला l लक्ष्मण जी की पत्नी उर्मिला महान पतिव्रता थी , उसने चौदह वर्ष तक अपने पति की अनुपस्थिति में पलक ऊपर उठाकर किसी पुरुष के दर्शन तक नहीं किए और राज्य - भोग , आभूषण , स्वादयुक्त भोजन आदि का परित्याग इसलिए कर दिया था , क्योंकि उनके पति वनवासी थे l जब लक्ष्मण जी स्वस्थ होकर पुन: मेघनाद से युद्ध के लिए जाने लगे तब भगवान राम ने उन्हें चेताया कि ध्यान रखना मेघनाद का सिर जमीन पर न गिरने पाए l ------- लक्ष्मण जी और मेघनाद में भयंकर युद्ध हुआ और अंत में मेघनाद पराजित हुआ और मारा गया l यह पूछने पर कि लक्ष्मण और मेघनाद दोनों ही महारथी थे , दोनों की पत्नी महान पतिव्रता थीं , जिनके सतीत्व की शक्ति उनके पति की रक्षा करती थी l फिर ऐसा क्या हुआ कि मेघनाद पराजित हुआ ? भगवान ने कहा --- मेघनाद ने एक ऐसे व्यक्ति का साथ दिया जिसने परस्त्री का अपहरण किया , अत्याचारी व अन्यायी था l ऐसे व्यक्ति का साथ देकर उसने स्वयं ही अपनी शक्ति को कम कर लिया और पराजित हुआ l इस प्रसंग से हमें शिक्षा मिलती है कि हम होश में रहें , अत्याचारी और अन्यायी का साथ देकर मनुष्य स्वयं अपने पतन की राह चुनता है l
19 November 2020
WISDOM -----
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना है --- " दूरसंचार क्रान्ति का सकारात्मक उपयोग हो , तो इसे वैचारिक क्रान्ति का कारगर एवं असरदार हथियार बनाया जा सकता है l " महात्मा गाँधी स्वयं जनसंचार के हिमायती थे l वर्ष 1930 के दांडी मार्च के निपुण चित्रांकन ने शीघ्र ही नमक सत्याग्रह को विश्वप्रसिद्ध घटना बना दिया l दांडी के लिए प्रस्थान करने से पहले बापू ने तीन फिल्म कर्मचारियों और कुछ फोटोग्राफरों को चुनकर अपने साथ कर लिया था l मोटरकार में गाँधी जी पीछे - पीछे चलकर उन्होंने पूरे अभियान की तस्वीरें खींची , जो दुनियाभर में दिखाई गईं l धूलधूसरित मैदान में लंबे डग भरते हुए अपने अनुयायिओं का नेतृत्व करते हुए महात्मा गाँधी की छवि तब लाखों लोगों के दिलों में बस गई थी l आचार्य श्री का कहना है ---' यदि इरादे नेक हों , दुर्बुद्धि दूर हो तो दूरसंचार सुविधा विचार - क्रांति का अनोखा हथियार होगी l '
WISDOM -----
चित्रगुप्त महाराज के यहाँ समाधान न हो पाने से समस्या धर्मराज के सामने लाई गई l एक संत अपने त्याग के बदले सद्गति चाहते थे , जबकि चित्रगुप्त के हिसाब से उन्हें केवल कुलीन कुल में जन्म देने की व्यवस्था थी l धर्मराज ने विवरणों का सर्वेक्षण किया और बोले --- " संत जी , आपका यह कथन ठीक है कि आपने सांसारिक पद - प्रतिष्ठा का मोह नहीं किया और समय और शक्ति उसमे नष्ट नहीं की l त्याग के इस साहस के पुण्य से आपको श्रेष्ठकुल व सत्परिस्थितियों में जन्म मिलेगा l किन्तु आपने त्याग के द्वारा बचाई ईश्वरीय विभूतियों को किसी ईश्वरीय उद्देश्य में , लोक - कल्याण में नहीं लगाया l उन्हें सही दिशा में गति नहीं दी l इसलिए आप सद्गति के अधिकारी नहीं बनें l " संत का समाधान हो गया और अगले जीवन में त्याग के साथ शक्तियों के सुनियोजन का संकल्प लेकर विदा हुए l
18 November 2020
WISDOM -----
चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथपुरी से दक्षिण की यात्रा पर निकले l रास्ते में एक सरोवर के किनारे उन्होंने एक ब्राह्मण को गीता - पाठ करते देखा l वह गीता के पाठ में इतना तल्लीन था कि उसे अपने शरीर की सुध नहीं थी , उसका हृदय गद्गद हो रहा था और नेत्रों से आँसुओं की धारा बह रही थी l उसका पाठ समाप्त होने पर चैतन्य महाप्रभु ने पूछा --- " तुम श्लोकों का अशुद्ध उच्चारण कर रहे थे , तुम्हे इसका अर्थ मालूम न होगा , परन्तु तब भी तुम इतने भाव-विभोर कैसे थे ? " उसने उत्तर दिया ---- " भगवन ! मैं क्या जानूँ संस्कृत l मैं तो जब पढ़ने बैठता हूँ तो ऐसा लगता है कि कुरुक्षेत्र के मैदान में दोनों ओर बड़ी भारी सेनाएं सजी हुई खड़ी हैं l जहाँ बीच में एक रथ पर भगवान कृष्ण अर्जुन से कुछ कह रहे हैं l इस दृश्य को देखकर मन भाव से भर उठता है l " चैतन्य महाप्रभु ने कहा --- ' भैया तुमने ही गीता का सच्चा अर्थ जाना है l " यह कहकर उन्होंने उसे अपने गले से लगा लिया l
17 November 2020
WISDOM ------
मनुष्य लोभ - लालच , ईर्ष्या - द्वेष और कामना - वासना जैसी मानवीय कमजोरियों में इस तरह फँसा हुआ है कि सामने ईश्वर भी हो , साक्षात् अवतार का साथ भी मिले तो भी वह उन्हें पहचान नहीं पाता l अपने बहुमूल्य जीवन को व्यर्थ गँवा देता है l ---- हृदयराम मुखोपाध्याय , रामकृष्ण परमहंस के साथ पच्चीस वर्ष रहे l वे ठाकुर से मात्र चार वर्ष छोटे थे l बचपन में वे ठाकुर के साथ खेले भी थे , पर उनकी आध्यात्मिक विभूति पर उनका ध्यान कभी नहीं गया l कलकत्ता में उनके मामा परमहंस जी एक मंदिर के पुजारी बन गए , यह सुनकर वे भी कलकत्ता आ गए l समाधि की स्थिति में उनको सँभालने , उन्हें खाना बनाकर देने आदि सारी जिम्मेदारी उनने संभाल ली l स्वयं ठाकुर मानते थे कि हृदय ने उनकी खूब सेवा की l दक्षिणेश्वर एक प्रकार से ईश्वरत्व को प्राप्त करने वाले जिज्ञासुओं की स्थली बन गया l हृदयराम का व्यवहार धीरे - धीरे बदलता गया l शरीर उनका बड़ा ताकतवर था l खूब खाते थे , जिसकी कोई कमी न थी l दंड भी पेलते थे l वे रामकृष्ण से रुखा बोलने लगे , कभी - कभी हाथ भी चला देते l कभी वे उनकी नक़ल बनाते l उनका अहंकार बढ़ता चला गया l अपने व्यवहार के चलते मई 1881 में उन्हें दक्षिणेश्वर छोड़ना पड़ा l एक बार वे श्री रामकृष्ण से मिलने आए , पर उन्हें जाना पड़ा l बाद में हृदय ने कुलीगिरी की , स्वास्थ्य गिरता चला गया एवं 1899 में उनका निधन हो गया l उनका जीवन अभिशप्त ही रहा , जबकि उन्हें साक्षात् अवतार का साथ मिला l
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तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है ---- ज्ञानिन कर चित्त अपहरई l हरियाई विमोह मन करई l ' यानि महामाया महाज्ञानियों के चित्त का भी हरण कर लेती हैं और उनके मन को मोह में डाल देती हैं l ----- इस प्रसंग की व्याख्या करने वाली कथा जो सत्य घटना पर आधारित है ' अखण्ड ज्योति ' में प्रकाशित हुई , इस प्रकार है ------ भगवान श्रीराम की पावन जन्म भूमि अयोध्या में श्रीराम कथा चल रही थी l एक वृद्ध संत जो भगवान के अनन्य भक्त थे , कथा सुना रहे थे l श्रोताओं में अनेक संत - महात्मा भी थे l इनमे एक युवा संत जिनकी आयु लगभग चौबीस वर्ष होगी , कथा सुन रहे थे , उनका नाम था अनुभवानन्द सरस्वती l इनके ज्ञान , तप , बोध का सब आदर करते थे l इस प्रसंग --ज्ञानिन ------ पर चर्चा होने पर युवा संत अनुभवानंद ने आपत्ति उठाई , बोले --- " यहाँ तुलसी बाबा गलत कह गए l भला ज्ञानी को व्यामोह कैसा ? महामाया तो कभी भी ज्ञानियों के चित्त का स्पर्श भी नहीं कर सकतीं l और जिसके चित्त का स्पर्श महामाया कर सकें उसे ज्ञानी नहीं कहा जा सकता l " उनके इस कथन पर कथावाचक संत बोले --- " महाराज ! आप अपने को क्या मानते हैं ? " इस प्रश्न पर मुखर होकर युवा संत बोले -- " निश्चित रूप से ज्ञानी l ऐसा ज्ञानी , जो महामाया के प्रभाव से सर्वथा मुक्त है l " उनकी इस बात पर कथावाचक संत ने कहा ---- " अब ऐसे में मैं क्या तर्क - वितर्क करूँ l बस , मैं तो भगवती से यही प्रार्थना करता हूँ कि गोस्वामी जी महाराज की इस चौपाई का अर्थ वही आपको समझाएं l " बात ख़त्म हो गई और काफी समय बीत गया l इस बीच युवा संत अनुभवानंद एक वृद्ध संत के साथ नर्मदा परिक्रमा के लिए निकले l परिक्रमा - पथ पर एक गाँव आया , वहां के जमींदार ने दोनों संतों की खूब आवभगत की और बाद में वृद्ध संत की विदा की और युवा संत को रोक लिया l युवा संत भी इसे भक्ति मानकर रुक गए l एक दिन दोपहर में जब संत विश्राम कर रहे थे तो जमींदार की युवा पुत्री उनके पाँव दबाने लगी l नींद खुलने पर संत ने आपत्ति जताई l लेकिन कन्या का सौंदर्य , जमींदार की मनुहार के साथ लोभ , मोह और भय सबने उन्हें घेर लिया l अंतत: जमींदार की कन्या उनकी पत्नी बन गई और एक वर्ष में वे एक सुन्दर बालक के पिता बन गए l लगभग तीन वर्ष बाद उनका मोह भंग हुआ और वे पुन: अयोध्या लौटे l वहां वही राम कथा का पुराना प्रसंग चल रहा था l अब वह महामाया के प्रभाव से परिचित हो चुके थे , उन्होने सिर नवाकर कथावाचक संत से क्षमा मांगी और कहा ----- " निःसंदेह तुलसी बाबा सही हैं l महामाया ज्ञानियों के भी चित्त को बलात हरण कर के मोह में डाल देती हैं l , केवल उनकी भक्ति और उनकी कृपा से ही इस प्रभाव से मुक्ति संभव है l
16 November 2020
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महाभारत युद्ध के दौरान कर्ण ने भीष्म से पूछा ---- " आप हम सबके पितामह के साथ - साथ परशुराम जी के शिष्य हैं l मेरे गुरुभाई भी हैं l ऐसा क्यों होता है कि अर्जुन से अधिक पराक्रमी होने के बावजूद , यह विश्वास मन में होते हुए भी कि मैं युद्ध में उसे हरा दूंगा , जब भी मैं अर्जुन के समक्ष होता हूँ , तब - तब पराजय का भाव मेरे मन में आता है l " भीष्म ने कहा ---- " ऐसा इसलिए होता है कर्ण कि तुम जानते हो कि तुम गलत हो , वह सही है l तुम्हारे अंदर अपराधबोध है l उसी का बोझ तुम्हारे मन पर है l भावनाओं का अवरोध ही तुम्हारी क्षमताओं को रोकता है l तुम विचारशील होने के नाते यह भी जानते हो कि पांडवों के साथ अन्याय हो रहा है और तुम अन्याय के पक्ष में खड़े हो l तुम्हारा अंतर्मन बार - बार हिचकता है l कर्ण ! तुम अधर्म के साथ खड़े हो l "
15 November 2020
WISDOM-----
एक पेड़ पर अनेक उल्लू निवास करते थे l संयोगवश एक हंस उस पेड़ पर आ बैठा l दिन का समय था तो हंस बोला ---- " आज प्रकाश बहुत है , क्योंकि सूर्यदेव अपने प्रचंड रूप में हैं l " यह सुनकर उल्लू बोले ---- " प्रकाश का सूर्य से क्या लेना - देना है ? " हंस ने उल्लुओं को समझाया ---- " सूर्य देवता हैं , वे सारे संसार को प्रकाशित करते हैं और हमें गर्मी भी देते हैं l " परन्तु उल्लुओं को हंस की बात समझ में नहीं आई l उल्लुओं ने अपनी शंका का निवारण करने के लिए मध्यस्थता की बात कही और मध्यस्थता के लिए चमगादड़ को बुलाया गया l चमगादड़ ने तो प्रकाश बिलकुल भी नहीं देखा था l वह हंस से बोला --- " यह तुम नई बात कहाँ से ले आए ? प्रकाश क्या होता है ? इसका सूर्य से क्या लेना - देना है ? तुम अपनी मूर्खतापूर्ण बकवास बंद करो l जब हंस ने उसे समझाने की कोशिश की तो चमगादड़ और उल्लू , हंस पर झपट पड़े l हंस किसी तरह जान बचाकर भागा l उड़ते - उड़ते हंस ने कहा ---- " सत्य को बहुमत न भी मिले तो भी सत्य , सत्य ही रहता है l परन्तु यदि बहुमत मूर्खों का हो तो समझदार व्यक्ति को उन्हें समझाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए l इससे मात्र अपनी ही ऊर्जा नष्ट होती है l "
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अच्छे - बुरे विचारों से केवल हम ही नहीं , यह धरती भी प्रभावित होती है l धरती पर ऐसे स्थानों की कमी नहीं , जो अपने बुरे प्रभाव के लिए कुख्यात रहे हों l महाभारत के युद्ध के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अपने दूतों को भेजा और किसी ऐसे स्थान के चयन की बात कही , जिसका इतिहास कुख्यात हो l एक स्थान पर एक भाई ने अपने ही भाई की हत्या कर दी थी l भगवान श्रीकृष्ण ने सोचा कि महाभारत जैसे युद्ध के लिए यही स्थान उपयुक्त हो सकता है l उन्हें डर था कि महाभारत भाई - भाई के बीच का संग्राम है , कहीं ऐसा न हो कि उनका प्रेम बीच में ही उमड़ आए और लड़ाई अधूरी रह जाए l वे चाहते थे कि सत्य की असत्य पर विजय हो l क्रूरता मरे और निर्दोष सरलता की जय हो l अत: उन्हें ऐसी युद्ध भूमि की तलाश थी , जो अपने कुकृत्यों से वहां के वातावरण को बुरी तरह प्रभावित करती हो l और ऐसी भूमि के रूप में कुरुक्षेत्र का चयन हुआ l महाभारत के लिए कहा जाता है --- ' न भूतो , न भविष्यति l '
13 November 2020
WISDOM ----- काल और कर्म से बड़ा कोई नहीं
' अखण्ड ज्योति ' में प्रकाशित एक लेख में आचार्य श्री ने गोलोकधाम में भगवान कृष्ण और श्रीराधा जी के संवाद के माध्यम से काल और कर्म की महत्ता को समझाया है l भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ----- " जब किसी का जन्म होता है तो वह अपने साथ में कर्मानुसार एक विशिष्ट भाग्य लेकर आता है तो वह भाग्य उसका पीछा तब तक नहीं छोड़ता , जब तक कि उसकी मृत्यु न हो जाए l किसी भी तरह उस व्यक्ति के जीवन से उसके भाग्य को हटाया नहीं जा सकता l तपस्या के बल पर उसे कम किया जा सकता है l " श्रीराधा ने कहा --- प्रभु ! इसे और स्पष्ट कीजिए l " भगवान कहते हैं --- " भाग्य का भोग नियत समय तक ही होता है , उसे न तो बढ़ाया जा सकता है और न घटाया जा सकता है , इसलिए काल का बड़ा महत्व है l अत: धैर्यपूर्वक अपने भोग को भोग लेना ही श्रेयस्कर है l " श्रीराधा ने कहा ---- " मथुरा में कंस की अनीति और अत्याचार अपने चरम पर है ---- उससे सभी पीड़ित हैं l कंस ने स्त्रियों के मान - सम्मान को तार-तार कर दिया , कहीं किसी की कोई सुनवाई नहीं हो रही है l इन दिनों वह देवकी -वसुदेव को कारागृह में डालकर घोर यंत्रणा देने में लगा है l l " इसी बीच देवर्षि नारद ' नारायण ' का गान करते हुए गोलोकधाम में आ गए l उन्होंने कहा --- " हे नारायण ! कंस तो खड्ग उठाकर देवकी - वसुदेव का सर्वनाश करने चल पड़ा है l अब क्या होगा प्रभु ! " भगवान कृष्ण कहते हैं ---- " कंस के हाथों माता देवकी और पिता वसुदेव का अंत नहीं लिखा है l उनका इतना भोग नहीं बनता है कि उनको कंस के हाथों प्राण गँवाने पड़े l हे देवर्षि ! इस सृष्टि में काल और कर्म से बड़ा कोई नहीं है , कंस भी नहीं l काल और कर्म के अनुसार ही भोग का विधान बनता है l अच्छा और बुरा दोनों ही काल के द्वारा संचालित होते हैं l जो सत्कर्म करता है , काल उसको श्रेष्ठतम कर्म का माध्यम बनाकर प्रतिष्ठित कर देता है और जो दुष्कर्म का वाहक होता है , काल उसे भीषण दंड देता है l कंस को काल दण्डित करेगा l जब काल दण्डित करता है तो फिर उसे कोई बचा नहीं सकता l " श्रीराधा और देवर्षि दोनों ने ही कहा ---- ' प्रभु ! देवकी और वसुदेव की आप कंस के खड्ग से कैसे रक्षा करेंगे ? " इस बात पर भगवान कृष्ण मुस्करा दिए l कंस उन्मत होकर नंगी तलवार लेकर कारागार में उनको मारने के लिए पहुँच गया l देवकी और वसुदेव अपनी रक्षा का भार अपने पुत्र श्रीकृष्ण पर छोड़कर निश्चिन्त हो गए थे l जैसे ही कंस ने तलवार चलानी चाही , वहीँ एकाएक शेषनाग अपने सहायक फनों के साथ प्रकट हो फुफकारने लगे l इस अप्रत्याशित और भयावह घटना से कंस बेहोश होकर गिर गया l
12 November 2020
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काशी नरेश युवराज के विकास से संतुष्ट थे l वे प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में उठ जाते , व्यायाम , घुड़सवारी , अध्ययन , राजदरबार के कार्य आदि सभी कुछ समय से करते l किसी भी दुर्व्यसन में नहीं उलझते थे l किन्तु राजपुरोहित बार - बार आग्रह करते कि उन्हें कुछ वर्षों के लिए किसी संत के सान्निध्य में , आश्रम में रखने की व्यवस्था बनाई जाए l किन्तु काशिराज सोचते थे कि उन्हें इसी क्रम में राजकार्य का अनुभव बढ़ाने का अवसर दिया जाए l तभी एक घटना घटी l राजकुमार नगर भ्रमण के लिए घोड़े पर निकले l जहाँ वे रुकते , स्नेह भाव से नागरिक उन्हें घेर लेते l एक बालक कुतूहलवश घोड़े के पास जाकर पूंछ सहलाने लगा l घोड़े ने लात फटकारी और बालक दूर जा गिरा l उसके पैर की हड्डी टूट गई l राजकुमार ने देखा , हँसकर बोले , असावधानी बरतने वालों का यही हाल होता है , और आगे बढ़ गए l सिद्धांतः बात सही थी पर लोगों को व्यवहार खटक गया l काशिराज को सारा विवरण मिला तो वे भी दुःखी हुए l राजपुरोहित ने कहा --- महाराज ! स्पष्ट हुआ है कि युवराज में संवेदनाओं का अभाव है l मात्र सतर्कता - सक्रियता के बल पर जनश्रद्धा का अर्जन और पोषण न कर सकेंगे l हो सकता है कभी क्रूरकर्मी बन जाएँ l अत: समय रहते युवराज की इस कमी को पूरा कर लिया जाना चाहिए l राजा का समाधान हो गया और उन्होंने राजपुरोहित के मतानुसार व्यवस्था कर दी l