'ब्रिटेन की धरती पर जन्म लेकर भी वे किसी एक देश के होकर न रहे , समग्र मानवता की पीड़ा को हरना उनका उद्देश्य था और इसी प्रयत्न में वे अंत तक लगे रहे । उनका विश्वास था कि यदि मनुष्य सुख-शांति के साथ रहना चाहता है तो उसे मानव-मानव के बीच धर्म, जाति, सम्प्रदाय की जो ऊँची-ऊँची दीवारे खड़ी हैं उन्हें तोड़ना होगा, इन भेद की रेखाओं को मिटाना होगा । '
रसेल वास्तव में मानवतावादी के विचारक थे, उनके मन में जीवन के प्रति गहरा प्रेम भरा हुआ था । इसलिये रसेल विश्व-शांति के पहरेदार बन गये । उनकी सीख थी कि राष्ट्रों को अपने आपसी विवादों को निपटाने के लिए युद्धों का सहारा नहीं लेना चाहिए, विश्वशांति के लिए यह आवश्यक है कि शक्तिशाली राष्ट्रों को कमजोर राष्ट्रों के शोषण से रोका जाये ।
रसेल को गणित में आरम्भ से ही रूचि थी | 27 वर्षों के निरंतर अभ्यास के बाद उन्होंने व्हाइटहेड के सथ मिलकर ' प्रिंसिपिया मैथेटिका ' पूर्ण किया और उसी ग्रन्थ ने उन्हें विश्व के गणितशास्त्रियों के समकक्ष स्थान दिलवाया ।
रसेल का कहना था कि जब तक कोई व्यक्ति अचछा नागरिक न हों तब तक वह अच्छा जन-प्रतिनिधि कैसे हो सकता है । उन्होंने लिखा--- " संसद और विधान सभाओं के सदस्य आराम से रहते हैं, मोटी-मोटी दीवारें और असंख्य पुलिस जन उनको जनता की आवाज से बचाये रखते हैं । जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उनके मन में उन वचनों की धुंधली-सी स्मृति ही रह जाती है जो निर्वाचन के समय जनता को दिये थे । दुर्भाग्य यह है कि अंत में विधायकों के निजी, संकीर्ण हितों को ही जनता का हित मान लिया जाता है |
रसेल वास्तव में मानवतावादी के विचारक थे, उनके मन में जीवन के प्रति गहरा प्रेम भरा हुआ था । इसलिये रसेल विश्व-शांति के पहरेदार बन गये । उनकी सीख थी कि राष्ट्रों को अपने आपसी विवादों को निपटाने के लिए युद्धों का सहारा नहीं लेना चाहिए, विश्वशांति के लिए यह आवश्यक है कि शक्तिशाली राष्ट्रों को कमजोर राष्ट्रों के शोषण से रोका जाये ।
रसेल को गणित में आरम्भ से ही रूचि थी | 27 वर्षों के निरंतर अभ्यास के बाद उन्होंने व्हाइटहेड के सथ मिलकर ' प्रिंसिपिया मैथेटिका ' पूर्ण किया और उसी ग्रन्थ ने उन्हें विश्व के गणितशास्त्रियों के समकक्ष स्थान दिलवाया ।
रसेल का कहना था कि जब तक कोई व्यक्ति अचछा नागरिक न हों तब तक वह अच्छा जन-प्रतिनिधि कैसे हो सकता है । उन्होंने लिखा--- " संसद और विधान सभाओं के सदस्य आराम से रहते हैं, मोटी-मोटी दीवारें और असंख्य पुलिस जन उनको जनता की आवाज से बचाये रखते हैं । जैसे-जैसे समय बीतता जाता है उनके मन में उन वचनों की धुंधली-सी स्मृति ही रह जाती है जो निर्वाचन के समय जनता को दिये थे । दुर्भाग्य यह है कि अंत में विधायकों के निजी, संकीर्ण हितों को ही जनता का हित मान लिया जाता है |