' मनुष्य को मात्र अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए और आलोचनाओं पर केवल इतना ध्यान देना चाहिए कि अपने व्यक्तित्व में कोई कमी हो तो उसे सुधार लिया जाये l '
जो अहंकारी होते हैं वे अपनी आलोचना तो क्या , अपने प्रति कहा गया एक शब्द भी बर्दाश्त नहीं करते और अपनी पूरी ऊर्जा इसी सोच - विचार में गँवा देते हैं कि अपने विरुद्ध एक शब्द भी बोलने वाले को कैसे प्रताड़ित करें , उसकी हिम्मत कैसे तोड़ दें l
एक प्रसिद्ध शायर को एक तानाशाह ने उसकी बुराई करने के लिए जेल में डाल दिया तो उसने बदले में तानाशाह के लिए दो पंक्तियाँ लिखकर भेंट में भेजी ------
'तुमसे पहले जो शख्स यहाँ पर तख्तनशीं था
उसको भी अपने खुदा होने पर इतना ही यकीं था l '
आलोचनाओं के प्रति हमारा रवैया कैसा हो , इस संबंध में एक प्रेरक प्रसंग है ----
अब्राहम लिंकन के एक मित्र ने समाचार पत्र की एक कटिंग उनके सामने रखते हुए कहा ---- " देखिए, लोग किस तरह आपकी आलोचना करने में लगे हुए हैं और आप चुप्पी ही साधे बैठे हैं l इनका प्रतिवाद आप किसी समाचार पत्र में क्यों नहीं भिजवाते ?
लिंकन ने उत्तर दिया ---- " मित्र ! यदि मैं समाचार पत्र की प्रत्येक आलोचना को देखूं और उसका उत्तर देने का प्रयत्न करूँ तो राष्ट्र के महत्वपूर्ण कार्य करने का समय ही नहीं रहेगा l मैं मात्र अच्छे ढंग से राष्ट्र की सेवा करने का प्रयत्न करता हूँ l यदि मेरे कार्यों के परिणाम देश की जनता के हित में निकलते हैं तो आलोचकों की बातें स्वत: ही निरर्थक सिद्ध हो जाएँगी और यदि इनके परिणाम राष्ट्र हित में नहीं निकलते तो देवता भी आकर मेरा पक्ष क्यों न लें , कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं होगा l "
मनुष्य यदि ईमानदारी से अपना कर्तव्य पालन करे , स्वयं के जीवन की दिशा सही हो तो हमें लोगों द्वारा अपनी की जाने वाली बुराइयों और आलोचनाओं की सफाई देने की जरुरत ही नहीं है , सही वक्त आने पर प्रकृति स्वयं गवाही देती है l
जो अहंकारी होते हैं वे अपनी आलोचना तो क्या , अपने प्रति कहा गया एक शब्द भी बर्दाश्त नहीं करते और अपनी पूरी ऊर्जा इसी सोच - विचार में गँवा देते हैं कि अपने विरुद्ध एक शब्द भी बोलने वाले को कैसे प्रताड़ित करें , उसकी हिम्मत कैसे तोड़ दें l
एक प्रसिद्ध शायर को एक तानाशाह ने उसकी बुराई करने के लिए जेल में डाल दिया तो उसने बदले में तानाशाह के लिए दो पंक्तियाँ लिखकर भेंट में भेजी ------
'तुमसे पहले जो शख्स यहाँ पर तख्तनशीं था
उसको भी अपने खुदा होने पर इतना ही यकीं था l '
आलोचनाओं के प्रति हमारा रवैया कैसा हो , इस संबंध में एक प्रेरक प्रसंग है ----
अब्राहम लिंकन के एक मित्र ने समाचार पत्र की एक कटिंग उनके सामने रखते हुए कहा ---- " देखिए, लोग किस तरह आपकी आलोचना करने में लगे हुए हैं और आप चुप्पी ही साधे बैठे हैं l इनका प्रतिवाद आप किसी समाचार पत्र में क्यों नहीं भिजवाते ?
लिंकन ने उत्तर दिया ---- " मित्र ! यदि मैं समाचार पत्र की प्रत्येक आलोचना को देखूं और उसका उत्तर देने का प्रयत्न करूँ तो राष्ट्र के महत्वपूर्ण कार्य करने का समय ही नहीं रहेगा l मैं मात्र अच्छे ढंग से राष्ट्र की सेवा करने का प्रयत्न करता हूँ l यदि मेरे कार्यों के परिणाम देश की जनता के हित में निकलते हैं तो आलोचकों की बातें स्वत: ही निरर्थक सिद्ध हो जाएँगी और यदि इनके परिणाम राष्ट्र हित में नहीं निकलते तो देवता भी आकर मेरा पक्ष क्यों न लें , कोई उनकी बात सुनने को तैयार नहीं होगा l "
मनुष्य यदि ईमानदारी से अपना कर्तव्य पालन करे , स्वयं के जीवन की दिशा सही हो तो हमें लोगों द्वारा अपनी की जाने वाली बुराइयों और आलोचनाओं की सफाई देने की जरुरत ही नहीं है , सही वक्त आने पर प्रकृति स्वयं गवाही देती है l