इस संसार में भिन्न - भिन्न मनोवृतियों के लोग हैं l अनेक व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपने वर्तमान में बहुत सफल और संपन्न होते हैं , बहुत संपन्न न भी हों तो आराम से जीवन व्यतीत करते हैं , लेकिन फिर भी उनके अंदर एक कुंठा होती है l उनके पिता , पितामह या परिवार के साथ कभी किसी ने बुरा व्यवहार किया हो , और अब चाहे वे सब जीवित भी न हों , तब भी कुंठाग्रस्त व्यक्ति बदले की भावना से ग्रसित रहता है और और अपनी इस कुत्सित मनोवृति को कार्यरूप देने का प्रयास करता रहता है l इसलिए ऋषियों ने संसार में सजग होकर रहने को कहा है l
एक प्रसंग है ----- गुरु गोविन्द सिंह जी उन दिनों गोदावरी तट पर नगीना नाम का घाट बनवा रहे थे l दिन बार उस काम में व्यस्त रहकर वे सांयकाल प्रार्थना कराते और लोगों को संगठन तथा बलिदान का उपदेश दिया करते l किसी युद्ध में गुरूजी के हाथ से एक व्यक्ति मारा गया था , उसके अनाथ पुत्र को गुरूजी ने आश्रम में रखकर पाल लिया था , अन्य सभी शिष्यों के समान वह भी प्रेम से गुरु की छत्रछाया में रहता था l किन्तु उनकी यही दया और शत्रु के पुत्र के साथ की गई मानवता उनके अंत का कारण बन गई l
उस ने गुरूजी के प्रेम को नहीं समझा और हर समय इस घात में रहता था कि कब गुरु जी को अकेले असावधान पाए और मार डाले l अवसर मिलने पर एक दिन उसने पलंग पर सोते हुए गुरूजी की काँख में छुरा भौंक दिया l गुरु गोविन्द सिंह जी तत्काल सजग होकर उठ बैठे और वहीँ कटार निकालकर भागते हुए विश्वास घाती को फेंककर मारी l वह कटार उसकी पीठ में धंस गई और वह तुरंत गिर कर ढेर हो गया l
गुरु के घाव पर टाँके लगा दिए गए l सांयकाल उन्होंने प्रार्थना सभा में लोगों को बतलाया कि मेरी इस घटना से शिक्षा लेकर हर सज्जन व्यक्ति को यह नियम बना लेना चाहिए कि यदि शत्रु पक्ष को , निराश्रय की स्थिति में सहायता भी करनी हो तो भी उसे अपने निकट नहीं रखना चाहिए और सदा उससे सावधान रहना चाहिए क्योंकि कभी - कभी असावधान परोपकार भी
अनर्थ का कारण बन जाता है l