मन में बहुत कुछ पाने और संचित करने की अनैतिक वृत्ति लोभ बनकर उभरती है l लोभ का विकृत विस्तार ही समाज में घोटाले , घपला एवं भ्रष्टाचार की व्यथित कथा - गाथा है l
रातों - रात बड़ा बनने, प्रतिष्ठित कहलाने की आकुल मानसिकता से भ्रष्टाचार का प्रादुर्भाव होता है l अधिक से अधिकतम वस्तुओं और संपदा प्राप्ति की ललक सभी मर्यादाओं को तोड़ देती है l लोभ गुब्बारे की तरह बढ़ता और फूलता है इसका उदर कभी तृप्त नहीं होता है l भ्रष्टाचार , घपला कभी कोई व्यक्ति अकेले नहीं करता , इसकी बहुत बड़ी श्रंखला होती है और सब बड़ी मजबूती से एक - दूसरे से बंधे होते हैं l लोभ का आकर्षण इतना तीव्र होता है कि कभी यह श्रंखला देश व सीमाओं को भी लांघ जाती है l लोभ - लालच का अंतिम परिणाम जानते व देखते हुए भी व्यक्ति सुधरता नहीं है l
रातों - रात बड़ा बनने, प्रतिष्ठित कहलाने की आकुल मानसिकता से भ्रष्टाचार का प्रादुर्भाव होता है l अधिक से अधिकतम वस्तुओं और संपदा प्राप्ति की ललक सभी मर्यादाओं को तोड़ देती है l लोभ गुब्बारे की तरह बढ़ता और फूलता है इसका उदर कभी तृप्त नहीं होता है l भ्रष्टाचार , घपला कभी कोई व्यक्ति अकेले नहीं करता , इसकी बहुत बड़ी श्रंखला होती है और सब बड़ी मजबूती से एक - दूसरे से बंधे होते हैं l लोभ का आकर्षण इतना तीव्र होता है कि कभी यह श्रंखला देश व सीमाओं को भी लांघ जाती है l लोभ - लालच का अंतिम परिणाम जानते व देखते हुए भी व्यक्ति सुधरता नहीं है l