अहंकारी व्यक्ति भी एक तरह से दया के पात्र हैं , उन्हें ईश्वर ने कितने ही सुख क्यों न दिए हों , उन्हें उसमे चैन नहीं मिलता l दूसरों को कष्ट पहुंचाकर , उन्हें मुसीबतों में डालकर ही उन्हें सुकून मिलता है l इसी से संबंधित एक प्रसंग पांडवों के वनवास काल का है ---- जब द्रोपदी और पांचों पांडव वनवास में थे , उन दिनों ऋषि दुर्वासा अपने दस हजार शिष्यों के साथ हस्तिनापुर पधारे l दुर्योधन ने उनकी खूब खातिरदारी की , बहुत सेवा की l उससे प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने उससे वरदान मांगने को कहा l दुर्योधन चाहता तो अपने लिए , हस्तिनापुर के लिए कोई भी वरदान मांग सकता था लेकिन वो अहंकारी था , उसे पांडवों को कष्ट देकर ही प्रसन्नता मिलती थी l वह जानता था कि ऋषि दुर्वासा बहुत जल्दी कुपित हो जाते हैं और शाप दे देते हैं l पांडवों का अहित करने के विचार से उसने ऋषि से बड़ी विनम्रता से कहा --- ' जैसे आपने हमारा आतिथ्य ग्रहण कर हम पर कृपा की , वैसे आप हमारे पांडव भाइयों का आतिथ्य ग्रहण करें , लेकिन वहां तब पहुंचे जब द्रोपदी भोजन कर चुकी हो l '
पांडवों के पास एक अक्षय पात्र था , जो सूर्य की आराधना से द्रोपदी को मिला था l अक्षय पात्र में एक बार जो भोजन पक जाता तो फिर चाहे जितने लोग उसे खाएं , वो रिक्त नहीं होता था लेकिन अंत में जब द्रोपदी भोजन कर लें और अक्षय पात्र धोकर रख दिया जाता , तो फिर कुछ नहीं हो सकता था , फिर उस दिन के लिए अक्षय पात्र खाली होता था l
अब दुर्योधन के बताये हुए समय पर दुर्वासा ऋषि अपने दस हजार शिष्यों सहित वन में पहुँच गए और युधिष्ठिर से कहा --- बहुत भूख लगी है , मैं अपने शिष्यों के साथ नदी पर स्नान करने जा रहा हूँ , लौटकर हम सब खाना खाएंगे l ' पांडव और द्रोपदी भोजन कर चुके थे , एकाएक ये मुसीबत खड़ी हो गई l
द्रोपदी ने भगवान को पुकारा l कृष्ण जी आये और आते ही कहा -- द्रोपदी भुझे बड़ी भूख लगी है कुछ है तुम्हारे पास l ' द्रोपदी बड़ी मुश्किल में पड़ गई , बोली इसी मुश्किल को हल करने तो हमने आपको बुलाया था l ' कृष्ण जी बोले --- " अरे भई , अक्षय पात्र लाओ , देखो कहीं कुछ लगा हो तो l l द्रोपदी ने पात्र धोकर रख दिया था , जल्दी से ले आईं l भगवान ने उसमें ढूंढा तो उसमे चावल के दो कण पड़े मिल गए l भगवान ने वे खा लिए और तृप्त होकर डकार ली l द्रोपदी को बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई कि उसने बरतन साफ नहीं धोया था l
कहते हैं उन चावल के दो कणों से दुर्वासा ऋषि और उनका पूरा शिष्य तृप्त हो गए l ईश्वर में ही सारा संसार समाया हुआ है l ऋषि और उनके शिष्यों का पेट ऐसा भर गया की उन्हें डकार पर डकार आने लगी l ऋषि ने अपने शिष्यों से कहा -- अब भोजन की कोई गुंजाइश नहीं है l द्रोपदी ने हम सबके लिए भोजन तैयार किया होगा , वह सती है कहीं नाराज न हो जाये l चलो सब जल्दी l सब अपना दंड - कमंडल लेकर तुरंत चले गए l ' जाको राखे साइंया मार सके न कोय , बाल न बांका करि सके , जो जग बैरी होय
पांडवों के पास एक अक्षय पात्र था , जो सूर्य की आराधना से द्रोपदी को मिला था l अक्षय पात्र में एक बार जो भोजन पक जाता तो फिर चाहे जितने लोग उसे खाएं , वो रिक्त नहीं होता था लेकिन अंत में जब द्रोपदी भोजन कर लें और अक्षय पात्र धोकर रख दिया जाता , तो फिर कुछ नहीं हो सकता था , फिर उस दिन के लिए अक्षय पात्र खाली होता था l
अब दुर्योधन के बताये हुए समय पर दुर्वासा ऋषि अपने दस हजार शिष्यों सहित वन में पहुँच गए और युधिष्ठिर से कहा --- बहुत भूख लगी है , मैं अपने शिष्यों के साथ नदी पर स्नान करने जा रहा हूँ , लौटकर हम सब खाना खाएंगे l ' पांडव और द्रोपदी भोजन कर चुके थे , एकाएक ये मुसीबत खड़ी हो गई l
द्रोपदी ने भगवान को पुकारा l कृष्ण जी आये और आते ही कहा -- द्रोपदी भुझे बड़ी भूख लगी है कुछ है तुम्हारे पास l ' द्रोपदी बड़ी मुश्किल में पड़ गई , बोली इसी मुश्किल को हल करने तो हमने आपको बुलाया था l ' कृष्ण जी बोले --- " अरे भई , अक्षय पात्र लाओ , देखो कहीं कुछ लगा हो तो l l द्रोपदी ने पात्र धोकर रख दिया था , जल्दी से ले आईं l भगवान ने उसमें ढूंढा तो उसमे चावल के दो कण पड़े मिल गए l भगवान ने वे खा लिए और तृप्त होकर डकार ली l द्रोपदी को बड़ी शर्मिंदगी महसूस हुई कि उसने बरतन साफ नहीं धोया था l
कहते हैं उन चावल के दो कणों से दुर्वासा ऋषि और उनका पूरा शिष्य तृप्त हो गए l ईश्वर में ही सारा संसार समाया हुआ है l ऋषि और उनके शिष्यों का पेट ऐसा भर गया की उन्हें डकार पर डकार आने लगी l ऋषि ने अपने शिष्यों से कहा -- अब भोजन की कोई गुंजाइश नहीं है l द्रोपदी ने हम सबके लिए भोजन तैयार किया होगा , वह सती है कहीं नाराज न हो जाये l चलो सब जल्दी l सब अपना दंड - कमंडल लेकर तुरंत चले गए l ' जाको राखे साइंया मार सके न कोय , बाल न बांका करि सके , जो जग बैरी होय