18 May 2020

WISDOM ----- अहंकारी अपने सुख से सुखी नहीं रहता

    अहंकारी  व्यक्ति  भी  एक  तरह  से  दया  के  पात्र  हैं ,  उन्हें  ईश्वर  ने  कितने  ही  सुख  क्यों  न  दिए  हों ,  उन्हें  उसमे  चैन  नहीं  मिलता  l   दूसरों  को  कष्ट  पहुंचाकर ,  उन्हें  मुसीबतों  में  डालकर  ही  उन्हें  सुकून  मिलता  है   l   इसी  से  संबंधित   एक  प्रसंग   पांडवों  के  वनवास  काल  का  है  ----    जब   द्रोपदी  और  पांचों  पांडव  वनवास  में  थे  ,  उन  दिनों  ऋषि  दुर्वासा   अपने  दस  हजार  शिष्यों  के  साथ   हस्तिनापुर  पधारे  l    दुर्योधन  ने  उनकी  खूब  खातिरदारी  की  ,  बहुत  सेवा  की  l   उससे  प्रसन्न  होकर  दुर्वासा  ऋषि  ने  उससे  वरदान  मांगने  को  कहा  l   दुर्योधन  चाहता  तो  अपने  लिए , हस्तिनापुर  के  लिए  कोई  भी  वरदान  मांग  सकता  था   लेकिन  वो  अहंकारी  था  ,  उसे  पांडवों  को  कष्ट  देकर  ही  प्रसन्नता  मिलती  थी  l   वह  जानता   था  कि   ऋषि  दुर्वासा   बहुत  जल्दी  कुपित  हो  जाते  हैं  और  शाप  दे  देते  हैं   l   पांडवों  का  अहित  करने  के  विचार  से  उसने  ऋषि  से  बड़ी  विनम्रता  से  कहा --- ' जैसे  आपने  हमारा  आतिथ्य  ग्रहण  कर   हम  पर  कृपा  की ,   वैसे  आप  हमारे   पांडव  भाइयों  का  आतिथ्य  ग्रहण  करें  ,  लेकिन   वहां  तब  पहुंचे  जब  द्रोपदी  भोजन  कर  चुकी  हो  l '
  पांडवों  के  पास  एक  अक्षय  पात्र  था  ,  जो  सूर्य   की  आराधना  से  द्रोपदी  को  मिला  था  l   अक्षय  पात्र  में  एक  बार  जो  भोजन  पक   जाता   तो  फिर  चाहे  जितने  लोग  उसे  खाएं  ,  वो  रिक्त  नहीं  होता  था   लेकिन  अंत  में  जब  द्रोपदी  भोजन  कर  लें  और  अक्षय  पात्र  धोकर  रख  दिया  जाता  ,  तो  फिर  कुछ  नहीं  हो  सकता  था  ,  फिर  उस  दिन  के  लिए  अक्षय  पात्र  खाली  होता  था  l
  अब  दुर्योधन  के  बताये  हुए  समय  पर   दुर्वासा  ऋषि   अपने  दस  हजार  शिष्यों  सहित    वन  में  पहुँच  गए    और  युधिष्ठिर  से  कहा  --- बहुत  भूख  लगी  है  ,  मैं  अपने  शिष्यों  के  साथ  नदी  पर  स्नान  करने  जा  रहा  हूँ  ,  लौटकर  हम  सब  खाना  खाएंगे  l  '  पांडव  और  द्रोपदी  भोजन  कर  चुके  थे  ,  एकाएक  ये  मुसीबत  खड़ी  हो  गई   l
द्रोपदी  ने  भगवान   को  पुकारा   l   कृष्ण जी  आये   और  आते  ही  कहा --  द्रोपदी  भुझे  बड़ी  भूख  लगी  है  कुछ  है  तुम्हारे  पास   l '  द्रोपदी  बड़ी  मुश्किल  में  पड़   गई  ,  बोली  इसी  मुश्किल  को  हल  करने  तो  हमने   आपको    बुलाया   था  l ' कृष्ण जी  बोले  --- " अरे  भई ,  अक्षय  पात्र  लाओ  ,  देखो  कहीं  कुछ  लगा  हो  तो  l   l   द्रोपदी  ने  पात्र  धोकर  रख  दिया  था  ,  जल्दी  से  ले  आईं  l   भगवान   ने  उसमें  ढूंढा  तो   उसमे  चावल  के  दो  कण  पड़े  मिल  गए  l   भगवान   ने  वे  खा  लिए  और   तृप्त  होकर  डकार  ली  l   द्रोपदी  को  बड़ी  शर्मिंदगी  महसूस  हुई  कि   उसने  बरतन   साफ   नहीं  धोया  था   l
कहते  हैं    उन  चावल  के  दो  कणों   से  दुर्वासा  ऋषि  और  उनका  पूरा  शिष्य  तृप्त  हो  गए  l   ईश्वर  में  ही  सारा  संसार  समाया  हुआ  है  l   ऋषि  और  उनके  शिष्यों  का  पेट  ऐसा  भर  गया  की  उन्हें  डकार  पर  डकार  आने  लगी  l   ऋषि  ने  अपने  शिष्यों  से  कहा  -- अब  भोजन  की  कोई  गुंजाइश  नहीं  है   l   द्रोपदी  ने  हम  सबके  लिए  भोजन  तैयार  किया  होगा  ,  वह  सती   है  कहीं  नाराज  न  हो  जाये  l   चलो  सब  जल्दी  l   सब  अपना  दंड - कमंडल  लेकर  तुरंत  चले  गए  l  '  जाको  राखे  साइंया   मार  सके  न  कोय ,  बाल  न  बांका  करि  सके  ,  जो  जग  बैरी  होय   

WISDOM ---- संवेदनशीलता और सहकारिता के अभाव के कारण ही शोषण संभव हुआ है

  शोषण  में  मानवीय  मूल्यों  का   कोई  स्थान  नहीं  है   l  शोषण  के  साथ  क्रूरता  का  भाव  है  l   इसके  लिए  इनसान   तो  बस ,  एक  उपभोग  की  वस्तु   है  l   शोषण  की  मानसिकता  यह  है   कि   दूसरे  की    कमजोरियों    का  लाभ  लेकर   उसे  सदा   नियंत्रण  में  रखो   और  अपना   हित   साधने  के  लिए  उसका   उपयोग  करो  l   जब  तक  वह  उपयोगी  है  ,  तब  तक  उसका  उपयोग  किया  जाये    और  अनुपयोगी  होने  पर    उसे  दूध  की  मक्खी  की  तरह  निकाल  कर  फेंक  दिया  जाये   l   इसलिए  शोषण  एक  प्रकार  की  विकृति  है  l   यह  विनाश  का  प्रतीक   है  l 
  अब   शोषण  भी   छोटे  क्षेत्र  में  सीमित    नहीं  रहा   इसका  स्वरुप  भी  ग्लोबल  हो  गया  है  l