13 January 2020

WISDOM ------ अहंकार सर्वेसर्वा होने की भ्रान्ति जरूर करा सकता है , परन्तु वह आंतरिक संतुष्टि नहीं दे सकता है

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य  जी  ने  लिखा  है --- ' केवल  और  केवल  ' मैं '  का  बोध  ही  अहंकार  है  l  अहंकार  रूपी  ' मैं '  , सदा  किसी  और  के  अस्तित्व  को  चुनौती  देता  है   और  प्राणिमात्र  में  उपस्थित  परमात्मा  को  एक  तरह  से  नकार  देता  है  l   अहंकारी  व्यक्ति  की  सम्यक  जीवन  दृष्टि  समाप्त  हो  जाती  है   l  कभी - कभी  तो  वह  स्वयं  को  ही  परमात्मा  मान  बैठता  है  l  उसकी  सोच - विचार  और  समझ  सभी  गलत  होने  लगते  हैं  l 
  अनीति , दुष्कर्म    करते  हुए  भी   मनुष्य  को  यह  नहीं  जान  पड़ता  कि   कहीं  कुछ  गलत  हो  रहा  है  ,  बल्कि  उसे  लगता  है  कि   जो  कुछ  हो  रहा  है  वह  नैसर्गिक  है  l   अहंकारी  मनुष्य  का  उचित - अनुचित  का  भेद  चला  जाता  है   और  उसे  कोई  कुछ  भी  समझाए  ,  उसका  उस  पर  कोई  प्रभाव  पड़ता  दिखाई  नहीं  पड़ता  है  l  
  रामकथा   जिसे  हम  पीढ़ी - दर - पीढ़ी  सुनते - सुनाते   आये  हैं  ,  हमें  बताती  है  कि   राम  और  रावण  , दोनों  में  बुनियादी  फरक  बस  अहंकार  को  लेकर  था  l   श्रीराम  अहंकारशून्य  थे  ,  जबकि  रावण  के  अहंकार  की   कोई  सीमा  नहीं  थी   l   रावण  की  पत्नी  मंदोदरी  ने  उसे  कितना  समझाया  कि  माता  सीता  साक्षात्  जगदम्बा  है    लेकिन  रावण  ने  एक  न  सुनी  ,  उसका  अहंकार  उसे  ले  डूबा  l
  आचार्य श्री  लिखते  हैं --- अहंकार  एक  रोग  के  समान   है  ,  जिसकी   औषधि   एवं   उपचार  ---- सच्चिंतन , सद्ज्ञान   अवं  सेवाभाव  में  सन्निहित  है   l  दुःखी , पीड़ित  एवं   व्यथित  व्यक्तियों  की  निस्स्वार्थ  एवं   निष्काम  सेवा  से  भी  अहंकार  की  चट्टान  टूटने - दरकने  लगती  है   l   अहंकार  के  मिटने  पर  ही  विवेक  का  उदय  होता  है  l