23 December 2019

WISDOM ---- देव संस्कृति हमें भाग्यवादी नहीं , कर्मवादी बनाती है l

    हम  पिछले  दो  हजार  वर्ष  से  अज्ञान  और  अंधकार  के  युग  में  रहते  चले  आये  हैं   l  हम  पर  अनेक  विदेशी  आक्रमण  हुए  l  मुट्ठीभर  अंग्रेजों  ने  भारत  जैसे  विशाल  देश  को  अपना  गुलाम  बना  लिया  l   ऐसा  कैसे  हुआ  ?  पं.  श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  वाङ्मय  ' भारतीय  संस्कृति  के  आधारभूत  तत्व  '  में  लिखते  हैं ---- '  हमारा  जीवन  दर्शन  उलट  गया  , पुरुषार्थवादी  भारतीय  दर्शन  भाग्यवादी  बन  गया  l  हम  कर्मठता  को  तिलांजलि  देकर  मानसिक  दासता  के  जंजाल  में   जकड़   गए  l   संभवत:  इस  मानसिक  अध:पतन  के  पीछे   उन  लोगों   का  हाथ रहा   जो  हमें  देर   तक शोषित , पतित   और  पराधीन  देखना  चाहते  थे  l   आक्रमणकारियों  और  अत्याचारियों   ने अपने   अन्याय  से  पीड़ित  लोगों  में  प्रतिकार  और  विद्रोह  की  आग   न  भड़कने  लगे  ,  इसके  लिए  भाग्यवादी  विचारधारा  का  प्रचार  किया  ,  और   इस ' भाग्यवाद '  को  तथा कथित  पंडितों  और  विद्वानों  के  माध्यम  से   प्रचलित  कराया   ताकि  भारत  जैसे  धार्मिक  देश  की  श्रद्धालु   जनता   उसे  आसानी  से  स्वीकार  कर  ले  l  '
  इस   विचारधारा  को    तथाकथित  -----  स्वार्थी  लोगों  ने  जनता  के  मन - मस्तिष्क  में  भर  दिया  कि   जिस  पर  अत्याचार  हुआ  है   , वह  अवश्य  पूर्व  जन्म  का  पापी  है  ,  उसने  पहले  सताया  होगा ,  इसीलिए  दंड  मिल  रहा  है  l   और  जिसने  अनीति पूर्वक  सुख - साधन   जुटा   लिए  हैं  ,  दूसरों  का  शोषण  कर  के  लाभ  कमाया  है ,  वह  पूर्व  जन्म  का  पुण्यात्मा  है  ,  उसके  पुण्यों  का  उदय  हुआ  है  l   अनीति  के  प्रतिरोध  का  उपाय   वे  विद्रोह  न  बताकर  यह  कहते  थे  कि   ईश्वर  की  भक्ति  करो  ,  भजन - कीर्तन  करो  l   ऐसा  करने  से  भगवान   प्रसन्न  होंगे  और  कष्ट  कम    हो  जायेंगे  l
  जहाँ  प्रतिरोध  की  संभावना  न  हो  वहां  हर  बुराई  मनमाने  ढंग  से  फलती - फूलती  रह  सकती  है  l  जो  लोग  किसी  वर्ग  को  पिछड़ा  रखकर   उनके  शोषण  का  लाभ  उठाना  चाहते  हैं   उनके  लिए  यह  भाग्यवादी  विचारधारा   बहुत  लाभकर   सिद्ध  हो  रही   थी   और  आज  भी  हो  रही  है  l   अछूतों  का , दलितों  का ,  नारी  जाति   का   युगों  से   शोषण   इसी   भाग्यवाद   के  विचार  के  कारण    हो  रहा  है  l  
 आचार्य जी  लिखते  हैं ----- '  हमें  मानसिक  आलस्य  को  छोड़कर  वस्तु - स्थिति  को  परखना  होगा   l   पूजा - उपासना  के  अतिरिक्त   विवेकपूर्ण  सत्प्रयत्न  और  उत्साहपूर्ण  परिश्रम   से  बुरी  परिस्थितियों    को बदलकर  आशाजनक   शुभ  परिस्थितियां   उत्पन्न  की  जा  सकती  हैं  l '