4 December 2019

  रामकृष्ण  परमहंस  कहते  हैं --- ' ईश्वर  दो  बार  हँसते  हैं  l  एक  बार  उस  समय  हँसते  हैं   जब  दो  भाई  जमीन    बांटते  हैं  और  रस्सी  से  नापकर  कहते  हैं  --- 'इस  ओर   की  जमीन    मेरी  है   और  उस  ओर   की  तुम्हारी  l "  ईश्वर  यह  सोचकर  हँसते  हैं  कि   संसार  है  तो  मेरा   और  ये  लोग   थोड़ी  सी  मिटटी  लेकर   इस  ओर   की  मेरी ,  और  उस  ओर   की  तुम्हारी   कर  रहे  हैं  l
फिर  ईश्वर  एक  बार  और  हँसते  हैं   l   बच्चे  की  बीमारी  बढ़ी  हुई  है  ,  उसकी  माँ  रो  रही  है   l वैद्द्य  आकर  कहता  है  --- " डरने  की  क्या  बात  है  , माँ  , मैं  अच्छा  कर  दूंगा  l  "  वैद्द्य  नहीं  जानता   कि   यदि  ईश्वर   मारना  चाहे   तो  किस  की  शक्ति  है  ,  जो  अच्छा  कर  सके 

WISDOM ------ सिनेमा अब जहर न उगले , लोक मंगल की जिम्मेदारी समझे ---- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

   आचार्य श्री  का  कहना  है --- ' फिल्मों  में  पहला  स्थान  लेखक  का , दूसरा  निर्देशक ,  तीसरा  गीतकार  और  संगीतकार ,  तब  चौथा  स्थान  कलाकार  का  है  l   यदि  लेखक  और  निर्देशक  तय  कर  लें  कि   फिल्म  से  समाज  को  सार्थक  देना  है   और  धनवान  उनकी  प्रतिभा  पर  विश्वास  करें   तो  सिनेमा  
जन क्रांति  कर  सकता  है   l  "
    आचार्य जी   ने  एक  बार  अपने  युग  की  दो  फिल्मों  की   चर्चा  की  थी  l   इनमें  पहली  फिल्म  थी
 ' महात्मा  विदुर '  जिस  पर  अंग्रेजों  ने  पाबन्दी  लगा  दी  थी  l   और  दूसरी  फिल्म  थी --- ' त्याग  भूमि '  जिसका  नायक  ब्राह्मण  होते  हुए  भी   हरिजनों  की  बस्ती   में  रहता  है  और  सादा  जीवन  व  उच्च  विचार  के  आदर्श  को  अपनाता  है  l   उन्होंने  बताया  कि   इन  फिल्मों  ने  अपने  समय   में  लोगों   को    बहुत  प्रभावित  किया  था  l
   विद्वानों  का  कहना  है --- ' सिनेमा  की  संवेदना  लोगों  के  दिलों  को  छूती  है  ,  उनकी  भावनाओं  को   इच्छित  दिशा  में  सहज  ही  मोड़  देती  है   l  सर्वेक्षण  में  पाया  यही  गया  है  कि   जिस  समय  लोग  सिनेमा  देखते  हैं  ,  उस  समय  उनकी  तर्क क्षमता ,  विश्लेषण  करने  वाली  पैनी  बुद्धि    सुप्त  सी  हो  जाती  है  l  बस  खुले  रहते  हैं  दिल  के  द्वार  ,  सिनेमा  के   प्रत्येक  दृश्य   में  होने  वाली  भावनाओं  की   कशमकश   के  साथ  वे  जीने  लगते  हैं  l   सिनेमा  देखे  जाने  के  बाद  भी  यह  स्थिति   देर  तक  बनी  रहती  है  l "
  फिल्म  निर्माण  खर्चीला  होता  है   इसलिए  फिल्म  निर्माता   लोगों  की  भावनाओं  का  शोषण  कर  अपनी  जेब  भरते  हैं   l   हमारे  धर्म  ग्रंथों  में  लिखा  है  -- समाज  को  पतन  की  राह  पर  धकेलने  से  बड़ा  कोई  पाप  नहीं  l   प्रकृति  में  क्षमा  का  प्रावधान  नहीं  होता  l 
 आचार्य  श्री  ने  लिखा  है ---  सामाजिक  परिवर्तन  में  सिनेमा  की  बड़ी  भूमिका  है   l   यह  सामाजिक  विचार   को  परिष्कृत    करने  एवं   भावनाओं  को  संवेदनशील  बनाने  का  कार्य  कर  सकता  है  l '