भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब 6-7 वर्ष के थे तब उन्हें पढ़ने के लिए गाँव के
' मकतब ' में भेजा गया , जिसमे एक बुड्डे मौलवी साहब पढ़ाया करते थे l उस समय वहां उनके सिवाय शिक्षा प्राप्त करने का कोई साधन न था l उसमे दो - तीन वर्ष रहकर उन्होंने उर्दू , फारसी का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लिया l राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि " मौलवी साहब बहुत अच्छे आदमी थे l इसी प्रकार वकालत की परीक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण हो जाने पर उसकी व्यवहारिक शिक्षा के लिए , वे सैयद शमसुल हुदा के शागिर्द बने l उनकी भी प्रशंसा करते हुए राजेन्द्र बाबू ने लिखा है ---- " एक बार बकरीद के अवसर पर मैं यह समझकर कि उनके यहाँ इस अवसर पर गाय की क़ुरबानी होती हो , अपने गाँव को चला गया l और दो - तीन दिन बाद वापिस आया l वकील साहब ने मेरे जाने का कारण पूछा और जब उनको मेरे उत्तर से संतोष नहीं हुआ तो स्वयं ही समझ गए और कहने लगे ---- " मैं समझ गया कि तुम बकरीद के कारण चले गए l तुमने सोचा होगा कि यहाँ गाय की कुर्बानी होगी l लेकिन ऐसा ख्याल कर के क्या तुमने मेरे साथ बेइंसाफी नहीं की ? तुमने कैसे समझ लिया कि मैं तुम्हारी भावना का कुछ भी आदर नहीं करूँगा l तुम तो खास आदमी हो l मेरे घर में कई हिन्दू नौकर भी तो हैं l बगीचे का माली हिन्दू है , गायों की देखभाल करने वाला भी हिन्दू है l क्या उनका दिल नहीं दुखेगा ? मुझे उनकी भावनाओं का ख्याल है l मेरे घर में अपने हिन्दू नौकरों के ख्याल से कभी गाय की कुर्बानी नहीं होती l "
राजेन्द्र बाबू ने लिखा है कि " मुझे अपनी गलती पर बहुत दुःख हुआ और यह शिक्षा मिली कि बिना अच्छी तरह जाने किसी के सम्बन्ध में कोई धारणा बना लेना बहुत बड़ा अन्याय है l "
इसी तरह बिहार में आन्दोलन करते समय उन्हें सबसे अधिक सहायता मौ. मजरुल हक से मिली l राजेन्द्र बाबू और मजरुल हक दोनों उन महापुरुषों में से थे , जो जातीय द्वेष की क्षुद्र भावना से बहुत ऊपर रहते हैं l
' मकतब ' में भेजा गया , जिसमे एक बुड्डे मौलवी साहब पढ़ाया करते थे l उस समय वहां उनके सिवाय शिक्षा प्राप्त करने का कोई साधन न था l उसमे दो - तीन वर्ष रहकर उन्होंने उर्दू , फारसी का सामान्य ज्ञान प्राप्त कर लिया l राजेन्द्र बाबू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि " मौलवी साहब बहुत अच्छे आदमी थे l इसी प्रकार वकालत की परीक्षा में प्रथम वर्ष में उत्तीर्ण हो जाने पर उसकी व्यवहारिक शिक्षा के लिए , वे सैयद शमसुल हुदा के शागिर्द बने l उनकी भी प्रशंसा करते हुए राजेन्द्र बाबू ने लिखा है ---- " एक बार बकरीद के अवसर पर मैं यह समझकर कि उनके यहाँ इस अवसर पर गाय की क़ुरबानी होती हो , अपने गाँव को चला गया l और दो - तीन दिन बाद वापिस आया l वकील साहब ने मेरे जाने का कारण पूछा और जब उनको मेरे उत्तर से संतोष नहीं हुआ तो स्वयं ही समझ गए और कहने लगे ---- " मैं समझ गया कि तुम बकरीद के कारण चले गए l तुमने सोचा होगा कि यहाँ गाय की कुर्बानी होगी l लेकिन ऐसा ख्याल कर के क्या तुमने मेरे साथ बेइंसाफी नहीं की ? तुमने कैसे समझ लिया कि मैं तुम्हारी भावना का कुछ भी आदर नहीं करूँगा l तुम तो खास आदमी हो l मेरे घर में कई हिन्दू नौकर भी तो हैं l बगीचे का माली हिन्दू है , गायों की देखभाल करने वाला भी हिन्दू है l क्या उनका दिल नहीं दुखेगा ? मुझे उनकी भावनाओं का ख्याल है l मेरे घर में अपने हिन्दू नौकरों के ख्याल से कभी गाय की कुर्बानी नहीं होती l "
राजेन्द्र बाबू ने लिखा है कि " मुझे अपनी गलती पर बहुत दुःख हुआ और यह शिक्षा मिली कि बिना अच्छी तरह जाने किसी के सम्बन्ध में कोई धारणा बना लेना बहुत बड़ा अन्याय है l "
इसी तरह बिहार में आन्दोलन करते समय उन्हें सबसे अधिक सहायता मौ. मजरुल हक से मिली l राजेन्द्र बाबू और मजरुल हक दोनों उन महापुरुषों में से थे , जो जातीय द्वेष की क्षुद्र भावना से बहुत ऊपर रहते हैं l