28 October 2018

WISDOM ----- यदि भावनाएं परिष्कृत हों तो सेवा स्वयं साधना बन जाती है l

    पूजा - पाठ ,  कर्मकांड  हों  या  समाज कल्याण  के  कार्य ,  यदि  व्यक्ति  का  उद्देश्य   नाम , यश  और  धन  कमाना  है    तो   उससे   आत्मिक  शान्ति  नहीं  मिलेगी,  जीवन  भर  व्यक्ति  शांति  की  तलाश  में  भटकता  ही  रहेगा  l   जो  लोग वास्तव  में     तनाव रहित  जीवन ,  सुख - शांति से  जीना  चाहते  हैं  उनके  लिए  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य   द्वारा  लिखित  अखण्ड  ज्योति  का  यह  अंश  महत्वपूर्ण  है ---- " विकारों  को  एक  स्थान  पर  बैठकर  जप - तप,  पूजा - पाठ  आदि  कर  के  दूर  नहीं  किया  जा  सकता  l  एक  स्थान  पर   इन  विकारों  को  जीतने  का  प्रयत्न  करने  से   इनसे  एक  भयानक  मानसिक  द्वन्द  आरम्भ  हो  जाता  है   और  मनुष्य  की  बहुत  सारी  शक्ति  और  समय   इसी  संघर्ष  से  निपटने  में   व्यय  हो  जाता  है   l
  इन  विकारों  को   विजय  करने  का  सबसे  सरल  तथा  सही  उपाय  एक  ही  है  कि  मनुष्य  समाज  में  अपने  को  मिला  दे   l  जनसेवा  का भाव  लेकर  कर्मक्षेत्र में  उतरे  l  जनसेवा  का  भाव  लेकर   कर्मक्षेत्र  में  उतर  पड़े  l  समाज  में  घुसकर  रहने  से ,  उसमे  सेवा  का  सक्रिय  व्यवहार  अपनाने  से  ,  हानि - लाभ , दुःख - सुख ,  हर्ष - शोक , क्रोध   आदि  के  हजारों  कारण    आयेंगे  ,  लाखों  प्रतिकूल  परिस्थितियों  से  होकर  जाना  पड़ेगा  l  ऐसे   अवसर  पर   अपने  विकारों  पर  संयम   करने  का  स्वस्थ  एवं  सफल  अभ्यास  प्राप्त  होगा  l   निष्कामता  को  अपनाकर  अपने  अहं  पर  चोट  सहता  हुआ  मनुष्य  ज्यों - ज्यों  जनसेवा  की   और  बढ़ता  है  त्यों - त्यों  उसका  आत्मिक  विकास    होता  है   l  आत्मिक  विकास  का  विस्तार  होने  से  धीरे - धीरे    उसके  सम्पूर्ण   विकार  तिरोहित   हो  जाते  हैं   और  वह  आध्यात्मिक  हो  जाता  है  l  "
आचार्यजी  का  स्पष्ट  मत  था --- कर्मयोगी  बनो ,  पवित्र  भावना  से  कार्य  करते  हुए   मन  में  गायत्री मन्त्र  का  जप  करो  ,  यही  सच्ची  उपासना  है   l