महाभारत में अर्जुन ने अपने जीवन की डोर भगवान के हाथों में सौंप दी , भगवान श्रीकृष्ण उनके सारथी बने l यह युद्ध अधर्म के नाश के लिए था l अधर्म का अंत तो भगवान ने ही किया लेकिन इसका श्रेय उन्होंने अर्जुन को दिया l पांडव धर्म के मार्ग पर थे और अर्जुन ने भगवान के श्री चरणों में स्वयं को समर्पित किया इसलिए वह इस श्रेय का अधिकारी बना l रथ की ध्वजा पर श्री हनुमान जी आरुढ़ थे l प्रतिदिन युद्ध समाप्ति पर श्रीकृष्ण रथ से उतारकर फिर अर्जुन को बड़े सम्मान से उतारते थे l अंतिम दिन महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ l भगवान कृष्ण सदा की तरह अर्जुन से पहले नहीं उतरे , उन्होंने अर्जुन से कहा --- " पार्थ ! आज तुम रथ से पहले उतर जाओ l तुम उतर जाओगे तब मैं उतरता हूँ l " अर्जुन को बड़ा आश्चर्य हुआ l अर्जुन के उतरने के बाद भगवान कृष्ण धीरे से उतरे और अर्जुन को रथ से दूर ले गए और तभी भयंकर विस्फोट हुआ और वह रथ जलकर ख़ाक हो गया l म आश्चर्य चकित अर्जुन ने भगवान कृष्ण से पूछा --" हे कान्हा ! आपके उतारते ही यह रथ पल भर में भस्मीभूत हो गया , यह क्या रहस्य है ? " भगवान कृष्ण अर्जुन से बोले ---- " हे पार्थ ! यह रथ तो पितामह भीष्म , द्रोणाचार्य और कर्ण के दिव्यास्त्रों से पहले ही नष्ट हो चूका था , इस दिव्य रथ की आयु तो पहले ही समाप्त हो गई थी लेकिन अधर्म का अंत करने के लिए इसकी उपयोगिता थी इसलिए यह मेरे संकल्प बल से चल रहा था l भगवान का संकल्प अटूट होता है यह जहाँ भी लग जाये , वहां अपना प्रभाव दिखाता है l अर्जुन महारथी था , लेकिन युद्ध में भगवान ने उसकी हर पल रक्षा की , उसे संरक्षण दिया l यह प्रसंग हर युग में इस सत्य को स्पष्ट करता है कि जो सत्य और धर्म के मार्ग पर है और इस संसार रूपी बगिया को सुन्दर बनाने में अपना योगदान देते हैं , भगवान अपने संकल्प बल से उनकी रक्षा करते हैं , उनकी उपयोगिता के कारण उन्हें जीवनदान देते हैं l ईश्वर की ऐसी कृपा पाने के लिए जरुरी है कि व्यक्ति में कर्त्तापन का अहंकार न हो , सब कुछ भगवान ही करते हैं हम तो केवल उनके हाथ का यंत्र हैं l