पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----" अहंकार एक भ्रम है , जो व्यक्ति के अन्दर तब उत्पन्न होता है जब वह स्वयं को श्रेष्ठ और शक्तिमान समझने लगता है l वह यह मानने लगता है कि दुनिया उसी के इशारे पर चल रही है l जब व्यक्ति सफल होता है तब अपने अहंकार के कारण वह परमात्मा को धन्यवाद देना भूल जाता है और यह सोचता है कि उसी ने सब कुछ किया है l वह चाहता है कि सारी दुनिया उसी का गुणगान करे , उसी के इशारों पर चले l " ------- दक्षिण में मोरोजी पन्त नामक बहुत बड़े विद्वान् थे l उनको अपनी विद्या का बहुत अभिमान था l सबको नीचा दिखाते रहते थे l एक दिन दोपहर के समय वे अपने घर से स्नान करने के लिए नदी पर जा रहे थे l मार्ग में एक पेड़ पर दो ब्रह्मराक्षस बैठे थे l वे आपस में बातचीत कर रहे थे l एक ब्रह्मराक्षस बोला ---- " हम दोनों तो इस पेड़ की दो डालियों पर बैठे हैं , पर यह तीसरी डाली खाली है , इस पर बैठने के लिए कौन आएगा ? " दूसरा ब्रह्मराक्षस बोला ---- " यह जो नीचे से जा रहा है न , वह यहाँ आकर बैठेगा क्योंकि इसको अपनी विद्वता का बड़ा अभिमान है l " उन दोनों का यह संवाद सुनकर मोरोजी पंत वहीँ रुक गए l अपनी होने वाली इस दुर्गति से कि प्रेतयोनि में जाना होगा , वे बहुत घबरा गए और मन ही मन संत ज्ञानेश्वर के प्रति शरणागत होकर बोले ---- " मैं आपकी शरण में हूँ , आपके सिवाय मुझे बचाने वाला कोई नहीं है l " ऐसा सोचते हुए वे आलंदी के लिए चल पड़े और जीवन पर्यंत वहीँ रहे l आलंदी वह स्थान है जहाँ संत ज्ञानेश्वर ने जीवित समाधि ली थी l संत की शरण में जाने से उनका अभिमान चला गया और संत की कृपा से वे भी संत बन गए l आचार्य श्री लिखते हैं --- जीवन में अहंकार उत्पन्न होने से प्रगति के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं l यदि व्यक्ति की चेतना जाग्रत हो जाये , वह इस सत्य को समझ ले कि जीवन की सार्थकता अहंकार में और उसके अनुचित पोषण में नहीं है तब वह ईश्वर शरणागति , समर्पण भाव , विनम्रता , शालीनता और सद् विवेक को जाग्रत कर अपने जीवन को सही दिशा में ला सकता है l '