18 March 2024

WISDOM-------

   श्रीमद् भगवद्गीता  में  भगवान  श्रीकृष्ण  ने   कर्तव्य  कर्म  को  ही   श्रेष्ठतम  कर्म  कहा  है  l  मनुष्य  अपने  कर्तव्य  कर्म  से  तो  मुख  मोड़  सकता  है  , परन्तु  कर्मों  के  फल  से  नहीं  बच  सकता   l  यदि  किसी  कर्म  द्वारा  हम   भगवान  की   ओर बढ़ते  हैं   तो  वह  सत्कर्म  है   और  वह  हमारा  कर्तव्य  है  ,  परन्तु  जिस  कर्म  के  द्वारा  हम   पतित  होते  हैं  वह  हमारा   कर्तव्य   नहीं  हो  सकता   l    पं .  श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ---- " देश -काल -पात्र   के  अनुसार   हमारे  कर्तव्य  बदल  जाते  हैं   और  सबसे  श्रेष्ठ  कर्म  तो  यह  है  कि  जिस  विशिष्ट  समय  पर  हमारा   जो  कर्तव्य  हो  ,  उसी  को  हम  भली -भांति  निभाएं  l   पहले  तो  हमें  जन्म  से  प्राप्त   कर्तव्य  को  करना  चाहिए   और  उसे  कर  चुकने  के  बाद  , सामाजिक  जीवन  में   हमारे  ' पद '  के  अनुसार   जो  कर्तव्य  हो  ,  उसे  संपन्न  करना  चाहिए   l  आचार्य श्री  लिखते  हैं --- ' प्रकृति  हमारे  लिए  जिस  कर्तव्य  का  चयन  करती  है  , उसका  विरोध  करना  व्यर्थ  है  l  यदि  कोई  मनुष्य  छोटा  कार्य  करे  ,  तो  उसके  कारण  वह  छोटा  नहीं  कहा  जा  सकता  l  कर्तव्य  के  मात्र  बाहरी  रूप  से  ही  मनुष्य  की  उच्चता  का  निर्णय  करना  उचित  नहीं  है  ,  देखना  तो  यह  चाहिए  कि  वह   अपना  कर्तव्य  किस  भाव  से  करता  है  l  सबसे  श्रेष्ठ  कार्य   तो  तभी  होता  है  ,  जब  उसके  पीछे   किसी  प्रकार  का  स्वार्थ  न  हो   और   उस  व्यक्ति  ने   अपना  कर्तव्य  पूर्ण  मनोयोग  के  साथ  पूर्ण  किया  हो   l  "    एक  कथा  है  ---- एक  संन्यासी  ने  कठोर  तप  किया  ,  उनके  पास  कुछ  ऐसी  शक्ति  आ  गई   कि  क्रोध   आने  पर   द्रष्टि मात्र  से   ही  वे  किसी  को  भी  भस्म  कर  सकते  थे  l  उन्हें  अपनी  शक्ति  का   बड़ा  अहंकार  हो  गया  l  ईश्वर  किसी  के  अहंकार  को  सहन  नहीं  करते  ,  उस  समय  आकाशवाणी  हुई  कि   तुमसे  भी  बड़ा  तपस्वी   अमुक  व्याध  है  l  संन्यासी  उस  व्याध  से  मिलने  गए   तो  देखा  कि  वह  व्याध  अपना  काम  लगातार  कर  रहा  है   और  जब  काम  पूरा  कर  चुका  तो  उसने   अपने  रूपये -पैसे  समेटे   और  संन्यासी  से  कहा --- " चलिए  महाराज  !  घर  चलिए  l  "   घर  पहुंचकर  व्याध  ने  उन्हें  आसन  दिया  और  कहा ---' आप  यहाँ  थोडा  ठहरिये  l  "  इतना  कहकर  वह  व्याध  अन्दर  चला  गया   l   वहां    उसने  अपने  वृद्ध  माता -पिता  को  स्नान  कराया  , भोजन  कराया   और  फिर  उन  संन्यासी  के  पास   आया   और  कहा ---' अब  बताइए  , मैं  आपकी  क्या  सेवा  कर  सकता  हूँ  ? ' संन्यासी  ने  उससे  आत्मा -परमात्मा  सम्बन्धी  प्रश्न  किए  ,  उनके  उत्तर  में  व्याध  ने  जो  उपदेश  दिया  वह  महाभारत  में  वर्णित  है  l   जब  व्याध  अपना  उपदेश  समाप्त  कर  चुका  तो  संन्यासी  को  बड़ा  आश्चर्य  हुआ   और  उन्होंने  कहा ---- "  इतने  ज्ञानी  होते  हुए  भी   आप  इतना  निन्दित  और  कुत्सित  कार्य  क्यों  करते  हैं  ? "  व्याध  ने  कहा ---- " महाराज  !  कोई  भी  कार्य  निंदित  अथवा  अपवित्र  नहीं  है  l  मैं  जन्म  से  ही  इस  परिस्थिति  में  हूँ  ,  यही  मेरा  प्रारब्धजन्य    कर्म  है  l  मेरी  इसमें  कोई  आसक्ति  नहीं  है  , कर्तव्य  होने  के  नाते   मैं  इसे  उत्तम  रूप  से  करता  हूँ  l  मैं  गृहस्थ  होने  के  नाते   अपना  कर्तव्य  करता  हूँ   और  अपने  माता -पिता  के  प्रति   अपने  कर्तव्य  को  पूर्ण  करता  हूँ  l  मैं  कोई  योग  नहीं   जानता  , संन्यासी  नहीं  हूँ , संसार  को  छोड़कर  कभी  वन  भी  नहीं  गया  ,  परन्तु  फिर  भी  आपने  मुझसे   जो  सुना  व  देखा   वह  सब   मुझे  अनासक्त  भाव  से   अपनी  अवस्था  के  अनुरूप   कर्तव्य  का  पालन  करने  से  ही  प्राप्त  हुआ  है  l "  आचार्य श्री  लिखते  हैं --- " कर्तव्य   आत्मा  को  मुक्त  कर  देने  के  लिए  शक्तिशाली  साधन  हैं  ,  इसलिए  जब  भी  हम  कोई  कार्य  करें  तो   उसे  एक  उपासना  के  रूप  में  करना  चाहिए  , कार्य  को  पूजा   समझकर  करें  l  "