11 December 2019

WISDOM ------ भारतीय संस्कृति को अनेक संस्कृतियों के योग से बना हुआ मधु माना जाता है

  अखण्ड  ज्योति  जून  1992   में  प्रकाशित  एक  लेख  का  अंश ----
          भारतीय  संस्कृति  कितनी  विशाल  है , इस  महासागर  में  भिन्न - भिन्न  सभ्यताएं , संस्कृतियां  आदि  आते  और  समाते  चले  गए  l  कवीन्द्र  रविन्द्र   ने  एक  काव्य  द्वारा   इस  भाव  को  व्यक्त  करते  हुए  बंगला   कविता  लिखी  थी  ,  उसका  भावानुवाद   करते  हुए  श्री रामधारी सिंह  दिनकर  ने   अपनी  पुस्तक  ' संस्कृति  के  चार  अध्याय '  में  लिखा  है ---- " भारत  देश  महा मानवता  का  पारावार  है  l   इस  पवित्र  तीर्थ  में  ,  किसी  को  भी  ज्ञात  नहीं  कि   किसके  आव्हान  पर   मनुष्यता  की  कितनी  धाराएं   दुर्वार  वेग  से  बहती  हुईं   कहाँ - कहाँ  से  आईं  और   इस  महासमुद्र  में   मिलकर  खो  गईं  ------ समय - समय  पर   जो  लोग  रक्त  की  धारा   बहाते   हुए  एवं   उन्माद - उत्साह  में  विजय  के  गीत  गाते   हुए   रेगिस्तान  को  पार  कर  , पर्वतों  को  लांघकर  इस  देश  में  आये  थे  ,  उनमे  से  किसी  का  भी   अब  अलग  कोई  अस्तित्व  नहीं  है   l  वे  सब  मेरे  इस  विराट  शरीर  में  विद्दमान  हैं   -- l  "
  आचार्य श्री  ने  लिखा  है ---- ' आर्य ' कोई  जाति   या  नस्ल  विशेष  का  नाम  नहीं  है  l  ' आर्य ' का  अर्थ  होता  है -- श्रेष्ठ  l  भारतवर्ष  में   यह  भाव  कभी  पनपा  ही  नहीं   कि  ' रेस - थ्योरी '  के  अनुसार   कौन  हमारी  जाति   का  है , कौन  नहीं  l     जो  इस  पुण्यतोया   भगीरथी   के  प्रवाह  में  जुड़ा   वह  गन्दा  नाला  हो  या   पवित्र  यमुना  नदी ,  सभी  इसमें  आत्मसात  हो  आर्य पुरुष  कहलाये  l  '
  किसी  भी    संस्कृति , सभ्यता ,  धर्म  या  समाज  के  पतन  का  कारण   होता  है    उसमे  विकृतियों  का  प्रवेश   तथा  इस  कारण   उसकी  जीवनी  शक्ति  गिर  जाना   l   पाश्चात्य  विद्वान्  तथा  इतिहासकार  लिखते  हैं  --- हिन्दू  समाज  अच्छाइयां  छोड़ता  रहा   व  वर्ण  जातिभेद   से  लेकर   अछूत  समस्या , नारी  समस्या , शुद्धि  समस्या   जैसी  कई  समस्याओं  को  पैदा  कर के  अपने  लिए  पतन  की  राह  चुन  ली  l ----- भारतवर्ष  राजनीतिक   दृष्टि  से  ही  नहीं   सांस्कृतिक  दृष्टि  से  भी  गुलाम  होता  चला  गया  l   इसके  आध्यात्मिक  तत्वदर्शन  में   ऐसी  विकृतियां  समाहित   होती  चली  गईं  जिसने  जनमानस  को  दिग्भ्रमित  किया  l   भाग्यवाद ,  ईश्वर   दर्शन  को  अपनाने  लगे  इच्छा  सर्वोपरि , अकर्मण्यवाद ,  पलायनवाद  जैसे  तत्वों  ने  जन   मानस  को  मूर्छित    कर  दिया  है   l   कालांतर  में  अंग्रेजी  शिक्षा  के  साथ   लोग  अपने  गौरव पूर्ण  अतीत  को  भूलकर    उस  भोगपरायण   दर्शन  को  अपनाने  लगे   जिससे  आज   सारा  पश्चिम  दुखी  है   l   आचार्य  श्री  लिखते  हैं --  अनुयायिओं  की  संख्या  बढ़ाने  के  स्थान  पर  जनमानस  का  परिष्कार  अधिक  जरुरी  है   l 

WISDOM ------

   भ्रष्टाचार    और  व्यभिचार  मनुष्य  को  पाप  की  ओर   धकेलते  हैं    l  पाप  का  अर्थ  हर   वह  कर्म  ,  जो  हमारी  चेतना  को  नीचे  गिराए   और  उस  कर्म  को  करने  पर   अपार  द्वंद   एवं   बेचैनी  पैदा  हो  जाये   तथा  करने  के   पश्चात्  अपराध बोध   लगने लगे  l   व्यभिचारी  का  पाप  पूरी  पीढ़ी  को  नष्ट  करने  के  लिए  पर्याप्त  है  l   उसकी  संतान  भी  उसी  आत्मघाती  डगर  पर  बढ़ती  है   l
     पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ---- "  व्यभिचार  ने  पीढ़ियों  को  इतना  खोखला  कर  दिया  है   कि   कोई  श्रेष्ठ  आत्मा   ऐसे  परिवार  में  जन्म  लेना  नहीं  चाहतीं   l   इन  पीढ़ियों  में  केवल  ऐसी  जीवात्माएं    आकृष्ट  होती  हैं  ,  जिनकी  अभिरुचि   इसी   प्रकार  की  होती  है   l   अत:  ऐसे  परिवार  में  ऐसी  जीवात्माओं  का  जमघट  लग  जाता  है  ,  जिनके  कर्म  मिलकर   न  केवल  स्वयं   एवं   परिवार  को  नष्ट  करते  हैं  ,  बल्कि  वातावरण  को  भी  दूषित  करते  हैं  l   पश्चिम  का  उन्मुक्त   एवं   उच्छृंखल   यौनाचार  हमारे  समाज  में   असाध्य  रोग  के  समान   संक्रमित  हो   चुका   है   l  "
 जरुरी  है  मनुष्य  सदाचरण  करे  l   महान  आत्माएं  पवित्र  कोख  से  जन्म  लेती  हैं    !