25 September 2023

WISDOM -----

  पं . श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  ----- " हमारे  जीवन  में  जो  कुछ  भी  है  --- भौतिक  संपदा ,  आध्यात्मिक  संपदा , रिश्ते -नाते ,  ये  सब  हमारे  ही  कर्मों  की  अभिव्यक्ति  है  l  दुनिया  में  हम  जिसे  भी  देखते  हैं  अर्थात  --पिता -पुत्र , गुरु -शिष्य  ,  हमारे  सभी  पारिवारिक  रिश्ते  वे  सब  हमारे  अतीत  में  किए  गए    अपने  ही  कर्मों  का  परिणाम  हैं  जो  विभिन्न  रूपों  में  हमारे  सामने  हैं  l  आचार्य श्री  लिखते  हैं  ---- ' इस  विश्व  ब्रह्माण्ड  में  हम  जहाँ  कहीं  भी  हों  ,  हमारा  कर्म  हमारा  पीछा  करता  हुआ   हम  तक  पहुँच  ही  जाता  है  l  इस  जन्म  में  नहीं  तो   अगले  कई  जन्मों  तक   ये  कर्म  हमारा  पीछा  करते  ही  रहते  हैं   और  तब  तक  समाप्त  नहीं  होते   जब  तक  हम  उन्हें  भोग  नहीं  लेते  , फिर  चाहे  कोई  राजा  हो , धर्मात्मा  हो  , शैतान  हो  , कर्मफल  का  विधान  सबके  लिए  एक  समान  है  l  स्वयं  भगवान  को  भी  अपने  कर्म  का  फल  भोगना  ही  पड़ता  है  l  '                     त्रेतायुग  में  भगवान  श्रीराम  ने  बाली  को  छुपकर  मारा  था  ,  इसका  कारण  चाहे  जो  भी  हो  लेकिन  इस  कर्म  के  परिणाम  स्वरुप  द्वापरयुग  में  जब  भगवान  ने  श्रीकृष्ण  के  रूप  में  अवतार  लिया   तब  जरा  नामक  व्याध  ने  उन्हें  छिपकर  बाण  मारा  था  , जो  इस  धरा  पर  उनकी  अंतिम  श्वास  का  कारण  बना  l '                                            सामान्य  द्रष्टि  से  हमारा  जीवन  हमारा  एक  जन्म  है  , लेकिन  अध्यात्म  की  द्रष्टि  से  यह     हमारी  आत्मा   की    एक  यात्रा  है   जो  कब  और  कहाँ  से  शुरू  हुई  और   कहाँ  समाप्त  होगी  , कोई  नहीं  जानता  l  इस  यात्रा  में   हमने  मानव  शरीर  धारण  कर   जो   शुभ - अशुभ     कर्म  किए  उनका   परिणाम  हमें   यात्रा  के  किस  पड़ाव  पर  मिलेगा  यह  काल  निश्चित  करता  है  l  यही  कारण  कि  सामान्य जन  जब  यह  देखता  है  कि  एक  से  बढ़कर  एक  पापी  सुख  भोग  रहे  हैं    और  पुण्यात्मा  कष्ट  भोग  रहे  हैं   तो  वह  भी   पाप  कर्मों  की  ओर  बढ़  जाता  है  क्योंकि  यह  राह  सरल  भी  है  l   लेकिन  इस  सत्य  को  समझना  होगा  कि   ईश्वर  ने   उनकी  यात्रा  के  इस  स्टेशन  पर  सुख  का  विधान  लिखा  हो , उनके  पाप  कर्मों  का  परिणाम  किसी  अन्य  स्टेशन  पर  मिलने  का  विधान  हो  l  भगवान  श्रीकृष्ण  ने  गीता  में  कहा  है  --- ' मैं  काल  हूँ  ,  सब  जन्म  मुझ  से  पाते  हैं  , फिर  लौट  मुझ  में  ही  आते  हैं  l  '    जब  भगवान  के  सामने  प्रत्यक्ष  रूप  में  दुर्योधन   आदि  ने  पांडवों  पर  अत्याचार  किया  , अधर्म , अन्याय , छल , कपट , षड्यंत्र  का  मार्ग  अपनाया   और  इस  गलत  राह  पर  चलकर   हस्तिनापुर  में  राजसुख  भोगते  रहे   l  दूसरी  ओर  पांडव  सत्य  की  राह  पर  चलकर  वन  में  कष्ट  भोगते  रहे  , यज्ञ  से  उत्पन्न  हुई  द्रोपदी   भरी  सभा  में  अपमानित  हुई , महलों  में  रहने  की   बजाय    वन  के  कष्ट  भोगे  , राजा   विराट    के  यहाँ  दासी  बनी  l  यदि  दुर्योधन  आदि  कौरवों  को  उनके  पापों  की  सजा  उनके  इसी  जन्म  में  नहीं  मिलती   तो  संसार  में   गलत  सन्देश  जाता   और  तब  हर   व्यक्ति  गलत  मार्ग  अपनाता  ,  कलियुग  आरम्भ  होने  वाला  था ,  तब  इस  धरती  पर  सत्य  की  राह  पर  चलने  वालों  का  जीवन  कठिन  और  असंभव  हो  जाता  l  इसलिए  भगवान  श्रीकृष्ण  ने  महाभारत  का  विधान  रचा   और  संसार  ने  देखा   कि  अनीति ,   अत्याचार  करने  वाले  कौरव  वंश  का  अंत  हो  गया   और  उनका  साथ  देने  वाले  भीष्म , द्रोणाचार्य , कर्ण  आदि   सब  युद्ध  में  मारे  गए   l                                        कर्म  की गति  बड़ी  गहन  है ,  कर्म  किसी  को  नहीं  छोड़ते  l  एक  कथा  है ----  देवराज  इंद्र  के  पुत्र  जयंत  ने   माँ  सीता  के  पैर  में  कौवे  के  रूप  में  चोंच  मार  दी  l  उनके  पैर  से  रक्त  निकल  आया  l  प्रभु  श्रीराम  ने  यह  देखकर   समीप  रखे  कुशा  के  एक  तिनके  को  उठाया  और  उसे  मंत्रसिक्त  कर  जयंत  की  ओर  फेंक  दिया  l  कुशा  के  उस  तिनके  ने  अभेद्य  बाण  का  रूप  धारण  कर  लिया  l  जयंत  भाग  निकला ,  सोचा  कि  हम  बच  गए  लेकिन  बाण  उसका  पीछा  करता  रहा  l  बाण  से  बचने  के  लिए  जयंत  सभी  लोकों  में  भागा  , किसी  ने  उसे  शरण  नहीं  दी  l  उसके  पिता  इंद्र     और  ब्रह्माजी  ने  भी  उसकी  सहायता  करने  से  मना  कर  दिया  l  अंततः  उसे  भगवान  श्रीराम  की  शरण  में  आना  पड़ा  l  उन्होंने  उसे  क्षमा  तो  किया  , परन्तु  कर्मफल  के  रूप  में  उसे  अपनी  एक  आँख  गँवानी  पड़ी  l