8 March 2022

WISDOM -----

पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं --- ' अहंकार  मानव  प्रकृति  में  धागे  के  समान  गुँथा   हुआ  है  l   अहंकारी  अपने  अलावा   किसी  और  को   अपने  से  बड़ा  और  अच्छा  देख  नहीं  सकता  l   यह  भाव  दूसरों  को  उठाने  के  बजाय  गिराता   है   ,  सुधारने  के  बजाय  बिगाड़ता   है  ,  मनाने   की  बजाय  रुठाता - रुलाता  है  l  '   अहंकार  के  ही  कारण    संसार  में  अशांति  और  तनाव  है  l  l   आचार्य श्री  लिखते  हैं  ---- हमें  अपने  अहंकार  के  मद  में  अपने  को  झुठलाने  का  प्रयास  नहीं  करना  चाहिए  l   जो  बुद्धिमान  हैं ,  जिनमे  गुणग्राहकता    का  गुण   है  ,  वे  अहंकार  के  मद  में  स्वयं  को  झुठलाते  नहीं   है ,  किसी  की  महानता   उनकी  हीनतापूर्ण  प्रतिक्रिया  का  कारण  नहीं  हो  सकती   l    वे  उसकी  महानता   को स्वीकार  करते  हैं  ,  जिससे  अहंकार  की  पीड़ा  के  स्थान  पर  गौरव - गरिमा  का  अनुभव  होने  लगता  है  l   "   ----- इन्दौर   के  महाराज  मल्हारराव  होल्कर   में    गुणग्राहकता  थी  , वे  उदार  गुणज्ञ  थे  l    पूना   जाते  समय   मार्ग  में   पथारी   गांव  के   शिवालय  के   पास   विश्राम  हेतु   उनका वैभवपूर्ण  शिविर  लगा  था  l   इन्दौर   की  महारानी  अहिल्याबाई   उस  समय  एक  गरीब  किसान  की  भोली - सी  ग्रामीण  कन्या  थीं  l   वे  नित्य  उस  शिव मंदिर  में  पूजा  करने  आती  थीं  l   उस  दिन  भी  वे   निर्विकार  भाव  से  आईं ,  यथावत  पूजन  किया   और  बिना  किसी  भय  और  संकोच  के  अलिप्त  भाव  से  वापस  चलीं  गईं  l   यह  देखकर  महाराज  मल्हारराव  सोचने  लगे   कि   क्या  संसार  में  ऐसा  संभव  है  कि   महाराजा  का  वैभवपूर्ण  शिविर  लगा  हो ,  चारों  ओर   ऐश्वर्य  बिखरा  हुआ  हो   और  एक  साधारण  सी  ग्रामीण  लड़की   आये  और  बिना  किसी  प्रभाव  के  तटस्थ  भाव   से  चली  जाये  l   अच्छे  से  अच्छे  धैर्यवान  भी  विस्मय  से  राजवैभव   को  देखते  हैं   लेकिन  यह  कन्या   तो ऐसे  चली  गई  ,  मानों    राजा  तो  क्या  एक  छोटा  सा  प्राणी  भी  न  हो  l   अहिल्याबाई  की  सात्विकता  और  निर्भयता  उनके  हृदय  में  श्रद्धा  बनकर  बैठ  गई  l   जिस  राजवैभव  का   उन्होंने  और  उनके  पूर्वजों  ने   बड़े  प्रयत्न  से  संचय  किया  था ,  उसका  अवमूल्यन  हो  गया   l   लेकिन    महाराज  मल्हारराव  ने   अहिल्याबाई  की  महानता ,  उनकी  सात्विकता    स्वीकार  कर    अपनी  अशांति  का  चिरस्थायी  हल  निकाल   लिया   l    और  उन्होंने  उनके   पिता  को   बुलवाकर  कहा --- ' मैं   आपकी सुलक्षणा  बेटी  को  अपनी  पुत्रवधु  बनाना  चाहता  हूँ   l   अहिल्या  के  पास  और   कोई  वस्त्र  थे  नहीं ,  उसी  सफ़ेद  मोटे   गाढ़े  की  धोती  में   बहुत  आदर  और  सम्मान  के  साथ   पालकी  में   बिठा  दिया   l   इन्दौर   की  युवरानी  बनने  के  बाद  भी  वे  कभी   अपने  पूर्व  जीवन  को  नहीं  भूलीं   l   सादगी   से रहीं  और  और  जो  धन , मान  उन्हें  मिला   उसका  उपयोग  उन्होंने  सदैव  लोक कल्याण  में  किया   l   उनके  गुणों  और  कर्तव्यनिष्ठा  ने  उन्हें  महानता  के  पद  पर  प्रतिष्ठित  किया   l