1. एक भक्त भगवान की प्रतिमा के आगे बैठा कुछ याचना करता था l याचना करते -करते बहुत समय बीत गया , पर उसकी कामना पूर्ण नहीं हुई l किसी अविश्वासी ने हँसते हुए भक्त से कहा --- " भला कहीं पत्थरों की मूर्तियाँ भी किसी को कुछ दिया करती हैं ? " भक्त ने कहा --- " सो तो ठीक है , पर मैंने सोचा - मनोरथ के पूर्ण न होने पर जो निराशा होती है , उससे चित्त खिन्न न हो , उसके लिए इस प्रकार का अभ्यास किया जाए तो हानि ही क्या है ? "
2 . पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' भक्ति का अर्थ है --- भावनाओं की पराकाष्ठा और परमात्मा एवं उसके असंख्य रूपों के प्रति प्रेम l यदि पीड़ित को देख अंतर में करुणा जाग उठे , भूखे को देख अपना भोजन उसे देने की चाह मन में आए और भूले -बिसरों को देख उन्हें सन्मार्ग पर ले चलने की इच्छा हो , तो ऐसे ह्रदय में भक्ति का संगीत बजते देर नहीं लगती l सच्चे भक्त की पहचान भगवान के चित्र के आगे ढोल -मँजीरा बजाने से नहीं , बल्कि गए -गुजरों और दीन -दुखियों को उसी परमसत्ता का अंश मानकर , उनकी सेवा करने से होती है l "