27 June 2021

WISDOM -----

   महाभारत  में  एक  प्रसंग  है  ----  अर्जुन  ने  जब  खांडव  वन  को  जलाया  ,  तब  अश्वसेन   नामक  सर्प  की  माता   बेटे  को  निगलकर   आकाश  में  उड़  गई  ,  लेकिन  अर्जुन  ने  उसका  मस्तक   बाणों   से  काट  डाला  l  सर्पिणी  तो  मर  गई   ,  पर  अश्वसेन  बचकर  भाग  गया  l   उसी  वैर  का  बदला  लेने    वह  कुरुक्षेत्र  की  रणभूमि  में  आया    था  l   उसने  कर्ण   से  कहा  ----- " मैं  विश्रुत   भुजंगों  का  स्वामी  हूँ    l   जन्म  से  ही  पार्थ  का  शत्रु  हूँ  l   तेरा  हित    चाहता  हूँ   l   बस  एक  बार   अपने  धनुष  पर   मुझे  चढ़ाकर   मेरे  महाशत्रु  तक  मुझे  पहुंचा  दे   l   तू  मुझे  सहारा  दे  ,  मैं  तेरे  शत्रु  को  मारूंगा   l  "   कर्ण  हँसे   और  बोले  ---- "  जय  का  समस्त  साधन  नर   की  बांहों  में  रहता  है  ,  उस  पर  भी  मैं  तेरे  साथ  मिलकर  --- साँप   के  साथ  मिलकर  मनुज  से  युद्ध  करूँ  ,  निष्ठां  के  विरुद्ध  आचरण  करूँ   !  मैं   मानवता  को  क्या  मुँह   दिखाऊंगा   ?  "    इसी  प्रसंग  पर  रामधारी  सिंह  ' दिनकर '  ने  लिखा  है ----- " रे  अश्वसेन  !  तेरे  अनेक  वंशज  ,  छिपे  नरों   में  भी   ,   सीमित   वन  में  ही  नहीं   ,  बहुत  बसते   पुर  - ग्राम - घरों  में  भी    l  "      आचार्य श्री  लिखते  हैं  ---- सच  ही  है  ,  आज  सर्प  रूप  में   कितने  अश्वसेन    मनुष्यों  के  बीच    बैठे  हैं   ---- राष्ट्र  विरोधी  गतिविधियों   में  लीन   हैं , आतंकवाद  के  समर्थक  l   महाभारत   की  ही  पुनरावृति  है  आज   l 

WISDOM ------

   महात्मा  रामानुजाचार्य  अपनी  शारीरिक  दुर्बलता  के  कारण  नदी  में  स्नान  करने  जाते  समय  लोगों  का  सहारा  लेकर  जाया  करते  थे  l   जाते  समय  वे  ब्राह्मण  के  कंधे  का  सहारा  लेते  थे     और  आते  समय  शूद्र  के  कंधे  पर  हाथ  रखकर   आते  थे   l   लोगों  ने  आश्चर्य  पूर्वक  पूछा  --- " भगवन  !  शूद्र  के  स्पर्श  से   तो  आप  अपवित्र  हो  जाते  हैं  ,  फिर  स्नान  का  महत्त्व  क्या  रहा  ? "     आचार्य  जी  ने  कहा  ----- "  स्नान  से    मेरी  देह  मात्र  शुद्ध  होती  है   l   मन  का  मैल   तो  अहंकार  है  l   जब  तक  मनुष्य  में  अहंकार  शेष  है  ,  तब  तक  उसे  मन  का  मलीन   ही   कहा  जाता  है  l   मैं  शूद्र  का  स्पर्श  कर  के  अपने  मन  की  मलीनता   स्वच्छ  करता  हूँ  l  मैं  किसी  से  बढ़ा  नहीं  ,  सब  मुझसे  ही  बड़े  हैं  ,  शूद्र  भी  मुझसे  श्रेष्ठ  हैं  ,  इसी  भावना  को   स्थिर  करने  के  लिए   मैं  शूद्र  का  सहारा   लिया  करता  हूँ   l   शरीर  ही  नहीं ,  मन  को  भी   पवित्र  रखने  की  व्यवस्था  करनी  चाहिए   l