यदि व्यक्ति का अंत:करण शुद्ध नहीं है , उसने सद्गुण और सन्मार्ग पर चलने की साधना नहीं की है तो ज्ञान के दुरूपयोग की संभावना होती है l प्रेरणाप्रद दृष्टांत है ----- महर्षि वर्ष ने अपने दो शिष्यों व्याडि और इंद्रदत्त को योग की समस्त विद्या सिखा दीं l साधना पूर्ण होने पर दोनों शिष्यों ने पूछा कि गुरुदक्षिणा मकया दें ? गुरु ने कहा --- ज्ञान का प्रकाश दसों दिशाओं में फैलाओ जिससे देश , जाति और संस्कृति का उत्थान होगा l शिष्यों को अपने ज्ञान का अहंकार था , उनने कहा कि आप कोई भौतिक वस्तु मांगे l शिष्यों के बहुत हाथ करने पर गुरु ने कहा --- ' दे सकते हो तो एक हजार स्वर्ण मुद्राएं लेकर दो , जिससे आश्रम का जीर्णोद्धार हो सके l " उचित तरीका यह था कि वे परिश्रम करते , मेहनत कर धन कमा कर गुरुदक्षिणा देते , लेकिन उनमे अहंकार था उनने सोचा तंत्र विद्या का प्रयोग कर के तुरंत ही गुरुदक्षिणा चुका दें l जब वे दोनों इस पर मंत्रणा कर रहे थे , उस समय मगध सम्राट नन्द की मृत्यु हुई l दोनों शिष्यों ने यह तय किया कि इंद्रदत्त , परकाया प्रवेश की विद्या से नन्द के शरीर में प्रवेश करे , तब तक व्याडि उसके शव की रक्षा करे l जब इंद्रदत्त की आत्मा नन्द के शरीर में पहुँच जाए तो एक मित्र वररुचि जाकर उनसे स्वर्ण मुद्राएं मांग लाये जिससे गुरुदक्षिणा चूक जाये l सारी व्यवस्था हो गई , परकाया प्रवेश होते ही मृत नन्द जी उठे l सारे मगध के लोग आश्चर्यचकित रह गए l लेकिन नन्द का मंत्री शकटारि सारी स्थिति समझ गया l उसने तत्काल जाकर इंद्रदत्त के शव का दाह संस्कार करा दिया और व्याडि को बंदी बनाकर जेल में डलवा दिया l अब कोई उपाय नहीं बचा इसलिए इंद्रदत्त की आत्मा सम्राट नन्द के शरीर में ही रह गई l इंद्रदत्त सम्राट नन्द के शरीर में था तो वहां के सुख - वैभव में भोग - वासनाओं में डूब गया l इधर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को शस्त्र और शास्त्र में निपुण बना दिया , उसके हाथों वह मारा गया और उधर व्याडि जेल की यातनाओं से मर गया l जो योग - विद्या आत्म कल्याण के उद्देश्य से सिखाई गई थी , अहंकार के कारण वह अपने ही साधकों को ले डूबी l गुरुदक्षिणा भी चुका न सके l जब गुरु वर्ष ने यह समाचार सुना तो उन्होंने यही कहा कि --- अपात्र को विद्या देने का यही फल होता है l