28 May 2023

WISDOM -----

 पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं --- "  ईर्ष्या  मानवीय  स्वभाव  की  विकृति  है  l   ईर्ष्यात्मक   जीवन  की  यात्रा  अधूरी  सी  होती  है  , जिसमे  जो  मिलता  है  , उसकी  कद्र  नहीं  होती   और  जो  नहीं  मिल  पाता  उसका  विलाप  चलता  रहता  है  l  इसलिए  जरुरी  यह  है  कि  दूसरों  की  ओर  न  देखकर   अपनी  ओर  देखा  जाये  , क्योंकि  हर  इनसान   अपने  आप  में   औरों    से  भिन्न  है  , विशेष  है  , उसकी  जगह  कोई  नहीं  ले  सकता   और  न  ही  उसकी  पूर्ति  कोई  कर  सकता  है  l  "  आचार्य श्री  आगे  लिखते  हैं --- " ईर्ष्या  तभी  हमारे  मन  में  प्रवेश  करती  है  , जब  हमारी  तुलनात्मक  द्रष्टि  होती  है   और  हम  उसमें  खरे  नहीं  उतरते  l  इसलिए  यदि  तुलना  ही  करनी  है  तो  अपने  ही  प्रयासों  में  करनी  चाहिए  कि  हम  पहले  से  बेहतर  हैं  या  नहीं  ,  तभी  ईर्ष्या रूपी  विष बीज   को  पनपने  से  रोका  जा  सकता  है   और  इसका  समूल  नाश  किया  जा  सकता  है  l  "                           अमेरिका  के  प्रसिद्ध  मनोवैज्ञानिक  डॉ . लेपार्ड  ने  लिखा  है ---- " किसी  की  सफलता  से  ईर्ष्या  करना  अपने  आपको  संकुचित  कर  के  सोचना  है   क्योंकि  एक  व्यक्ति   कभी  भी   किसी   दूसरे  की  सफलता   पर  डाका  नहीं  डाल  सकता   और  न  ही  किसी  अन्य  तरीके  से  उसे  छीन  सकता  है  l  सफलता  यदि  सच  में  प्राप्त  करनी  है   तो  उसके  लिए   ईर्ष्या  की  नहीं  अथक  प्रयास  की  जरुरत  है  l  '                                                          ईर्ष्यालु  व्यक्ति  कभी  भी  अपने  जीवन  से  संतुष्ट  नहीं  होता  l  वह  अपने  जीवन  की  बहुमूल्य  ऊर्जा  को  दूसरों  को   नीचा  दिखाने  के  प्रयासों  में  ही  गँवा  देता  है  l  ईर्ष्या  एक  आग  है  जिसमें  ईर्ष्यालु  व्यक्ति  निरंतर  जलता  रहता  है  l  इसलिए  आचार्य श्री  लिखते  हैं  ---- ' जीवन  जीना  एक  कला  है  l  यदि  ईर्ष्या  के  बिना   हमने  जीवन  जीना  सीख  लिया   तो  हमारी  जिन्दगी  बहुत  आसान  और  आशा  से  परिपूर्ण  हो  जाएगी  l