पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----- ' हम अपने जीवन में जितना आगे बढ़ते जाते हैं , उतनी ही आलोचनाएं भी बढ़ती हैं l यदि कोई व्यक्ति आलोचनाओं को सहन करना सीख लेता है तो वह अपने को पहले से ज्यादा संतुलित बना पाता है l आलोचना सुनने का अभ्यास हमें असुविधाजनक स्थिति में भी खुद पर नियंत्रण करना सिखाता है l समय के साथ हमें इस बात का अभ्यास हो जाता है कि कौन सी आलोचना उचित है और कौन सी अनुचित है l किन्हे स्वीकार करना चाहिए और किन्हे अस्वीकार करते हुए छोड़ देना चाहिए l हमारे कार्यों में स्वाभाविक रूप से गलतियां हो जाती हैं , यदि कोई व्यक्ति उन गलतियों को उजागर करता है तो उस पर नाराज होने की बजाय उनको स्वीकार कर लेना चाहिए l कमियों को सुधार लेना म ही हमें सक्षम और समर्थ बनाता है l