पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- 'चिंतन परिक्षेत्र बंजर हो जाने के कारण कार्य भी नागफनी , बबूल जैसे हो रहे हैं l इससे मानवता का कष्ट पीड़ित होना स्वाभाविक है l कार्य में श्रेष्ठता की अभिव्यक्ति होना तभी संभव है , जब उसके मूल में चिंतन की उत्कृष्टता हो l '--------एक बार की बात है --- राजा भोज गहरी निद्रा में सो रहे थे l उन्हें स्वप्न एक तेजस्वी वृद्ध पुरुष के दर्शन हुए l भोज ने उससे पूछा ---- ' भगवन ! आप कौन हैं ? ' वृद्ध ने कहा --- " हे राजन ! मैं सत्य हूँ l तुझे तेरे कार्यों का वास्तविक स्वरुप दिखाने आया हूँ l मेरे पीछे - पीछे चला आ और अपने कार्यों की वास्तविकता को देख l " राजा भोज अपने आपको लोक कल्याणकारी और बहुत बड़ा धर्मात्मा समझते थे , प्रसन्नता पूर्वक उस वृद्ध के पीछे चल दिए l वृद्ध पुरुष के रूप में सत्य , राजा भोज को उसकी कृतियों के पास ले गया , जिनके लिए भोज को बड़ा अहंकार था --- सर्वप्रथम वह उन्हें फल - फूलों से लदे बगीचे में ले गया l सत्य के छूते ही वे सब पेड़ ठूंठ हो गए l फिर राजा द्वारा बनवाये मंदिर आदि कृतियों की और ले गया l सत्य के छूते ही वे सब खंडहर होकर गिर गए l यह सब देख राजा जड़वत हो गया l सत्य ने कहा --- राजा विषाद मत करो , मेरे साथ आओ , मैं तुम्हे तुम्हारे कार्यों की वास्तविकता दिखाता हूँ l सत्य उन्हें उसके द्वारा किये गए लोक कल्याण के कार्यों , दान की बड़ी राशियों आदि के निकट ले गया , सत्य के छूते ही वे सब कंकड़ - पत्थर हो गईं l राजा को अपने जिन कार्यों पर अभिमान था वे सब झूठे और निष्फल साबित हुए l अपने कार्यों की ऐसी दुर्गति देख राजा हतबुद्धि होकर वहीँ बैठ गया l तब सत्य ने कहा ---- " राजन ! कर्म के राज्य में भावना का सिक्का चलता है l यश की इच्छा से , लोक दिखावे के लिए जो कार्य किये जाते हैं , उनका फल इतना ही है कि दुनिया की वाहवाही मिल जाती है l सच्ची सद्भावना से , नि:स्वार्थ होकर , कर्तव्य भाव से जो कार्य किये जाते हैं , उन्ही का पुण्य फल होता है l ' इतना कहकर वृद्ध पुरुष अंतर्धान हो गया l राजा भोज की निद्रा टूटी l वृद्ध की बातों से राजा ने समझा कि अंत:करण पवित्र होना चाहिए क्योंकि धर्म - अधर्म की जड़ मन में है , बाहर नहीं l