पं . श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- " यह ज्ञान ही है जो सत्य को असत्य में गिरने से , धर्म को अधर्म में परिणत होने से , दान को कृपणता में बदलने से , तप को भोगवादी होने से और तीर्थों को अपवित्रता में परिवर्तित होने से बचाता है l लेकिन यदि ज्ञान ही अपने मार्ग से भ्रष्ट हो जाता है और अविवेक का मार्ग अपनाता है तो - सत्य , धर्म , ज्ञान आदि विभूतियों का क्या होगा ? " आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' ज्ञानी जब अहंकारी हो जाता है तब उसके अंत: करण से करुणा नष्ट हो जाती है l उस स्थिति में वह औरों का मार्गदर्शन नहीं कर सकता l ऐसी सर्वज्ञता का क्या लाभ ? " -------- दक्षिण भारत के एक बड़े ही ज्ञानी , तपस्वी साधु थे ---सदाशिव ब्रह्मेन्द्र स्वामी l ये अपने गुरु के आश्रम में वेदांत का अध्ययन कर रहे थे l एक दिन उस आश्रम में एक विद्वान् पंडित जी पधारे l आश्रम में प्रवेश करते ही किसी बात पर उनका सदाशिव स्वामी से विवाद हो गया l सदाशिव स्वामी ने अपने तर्कों से उन पंडित जी के तर्कों को तहस -नहस कर दिया l वे आगंतुक पंडित , सदाशिव स्वामी की विद्वता के सामने पराजित हो गए और स्थिति ऐसी हो गई कि उन पंडित जी को ब्रह्मेन्द्र स्वामी से क्षमा -याचना करनी पड़ी l ब्रह्मेन्द्र स्वामी बड़े प्रसन्न थे कि उनकी इस विजय पर गुरु उनकी पीठ थपथपायेंगे , लेकिन ऐसा हुआ नहीं , बल्कि इसके ठीक विपरीत हुआ l उनके गुरु ने सदाशिव ब्रह्मेन्द्र स्वामी को कड़ी फटकार लगाईं और बोले ----- " सदाशिव ! श्रेष्ठ चिंतन की सार्थकता तभी है , जब उससे श्रेष्ठ चरित्र बने और श्रेष्ठ चरित्र तभी सार्थक है , जब वह श्रेष्ठ व्यवहार बनकर प्रकट हो l तुमने वेदांत का चिन्तन तो किया , पर ज्ञाननिष्ठ साधक का चरित्र नहीं गढ़ सके और न ही तुम ज्ञाननिष्ठ साधक का व्यवहार करने में समर्थ हो पाए , इसलिए तुम्हारे अब तक के सारे अध्ययन -चिन्तन को बस धिक्कार योग्य ही माना जा सकता है l " गुरु के इन वचनों को सुनकर सदाशिव स्वामी का अहंकार चूर -चूर हो गया l उन्होंने बड़े ही विनम्र भाव से पूछा --- " हे गुरुदेव ! हम अपना व्यक्तित्व किस भांति गढ़ें ? " उत्तर में गुरुदेव ने कहा ---- " तर्क -कुतर्क से बचो और मौन रहकर सकारात्मक चिन्तन , मनन , ध्यान से श्रेष्ठ चरित्र का निर्माण करो l "