भक्ति में जाति का नहीं , हृदय का स्थान होता है , यही वजह है कि मजहब की दृष्टि से मुसलमान होते हुए भी अब्दुल रहीम खानखाना कृष्ण के परम भक्त थे l बादशाह अकबर रहीम दास जी को बहुत सम्मान देते थे l अकबर के पुत्र जहांगीर ने रहीम को बादशाह के विरुद्ध विश्वासघात करने में साथ देने का प्रलोभन दिया कि बादशाह बनने के बाद वह उन्हें मंत्री पद सौंपेगा l रहीम ने यह बात नहीं मानी और जब जहांगीर बादशाह बना तो उसने रहीम दास जी से भारी बदला लिया l उसने रहीम के दोनों पुत्रों की हत्या कर के दरवाजे के पास फिंकवा दिया l रहीम के सारे अधिकार छीन लिए और उन्हें दर -दर की ठोकरें खाने को छोड़ दिया लेकिन रहीम तो भगवान के भक्त थे , सुख - दुःख से परे ! वे तब भी भक्त थे जब अपरिमित संपदाओं के स्वामी थे और बादशाह के दरबार में श्रेष्ठ लोगों को बेशकीमती रत्नों का उपहार दिया करते थे , और अब इस स्थिति में भी मस्ती में डूबे रहते थे , जब उनके पास कुछ नहीं था l एक दिन रहीम अपने जीवकोपार्जन हेतु बैठे थे और सामने बेचने के लिए चीजें पड़ी हुई थीं l उसी समय जहांगीर अपनी सेनाओं के साथ वहां से गुजरा और उन पर कटाक्ष किया ----- " देखा रहीम ! मेरे साथ न होने का परिणाम l " रहीम को तनिक भी दुःख नहीं था अपनी करनी पर और कोई शिकवा भी नहीं था बादशाह के इस कटाक्ष व अपमान पर l इकहत्तर वर्ष की उम्र में बड़े ही फक्र के साथ इस नश्वर देह को छोड़ने से पूर्व उन्होंने अनेक उल्लेखनीय कार्य किए , उन्होंने ज्योतिष शास्त्र में खेत खोतुकम एवं द्वाविशद योगावली की रचना की , इसके अतिरिक्त उन्होंने अनेक महान कार्य किये l ऐसी मान्यता है की अंतिम समय में उन्होंने अपने इष्ट भगवान कृष्ण के सामने ही देह का त्याग किया और उन्ही में विलीन हो गए l