9 January 2021

WISDOM ----- अहंकार एक भ्रम है

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  ---' अहंकार  व्यक्ति  के  जीवन   को    एक  ऐसे  नशे  में  डुबोता  है   जिसके  कारण  वह  इससे  उबरना  नहीं  चाहता  ,  बल्कि  और  डूबना  चाहता  है   व  डूबता  रहता  है  ,  लेकिन  पाता   कुछ  नहीं   l   व्यक्ति  अपने  अहंकार  को  ही  सर्वोपरि  समझता  है  ,  इस  कारण  वह  दूसरों  के  साथ   अच्छा  व्यवहार  नहीं  कर  पाता ,  वह  उन  पर  अधिकार  जमाना  चाहता  है    और  यह    चाहता  है   कि   सारी   दुनिया  केवल  उसका  ही  गुणगान  करे   और  उसी  के  इशारों  पर  चले   l  '      एक  सत्य  घटना  है  -----   दक्षिण  में   मोरोजी  पंत   नामक एक  बहुत  बड़े  विद्वान्  थे  l   उनको  अपनी  विद्या  का  बहुत  अभिमान  था  l   वे  अपने  समान  किसी  को  भी  विद्वान्   नहीं  मानते  थे    और  सबको  नीचा   दिखाते   रहते  थे   l   एक  दिन  की  बात  है   कि   दोपहर  के  समय    वे  अपने  घर  से   स्नान  करने  के  लिए  नदी  पर  जा  रहे  थे   l   मार्ग  में  एक  पेड़  पर   दो  ब्रह्मराक्षस   बैठे  हुए  थे   l   वे  आपस  में  बातचीत  कर  रहे  थे  l   एक  ब्रह्मराक्षस  बोला ----- "  हम  दोनों  तो    इस  पेड़  की  दो  डालियों   पर  बैठे  हैं  ,  पर  यह  तीसरी  डाली  खाली   है  ,  इस  पर  बैठने  के  लिए  कौन  आएगा   ? "    तो  दूसरा  ब्रह्मराक्षस  बोला  ----- " यह  जो  नीचे   से  जा  रहा  है  न  ,   यह  यहाँ  आकर  बैठेगा   क्योंकि  इसको   अपनी  विद्व्ता  का  बहुत  अभिमान  है   l  "  उन  दोनों  के  संवाद  को  मोरोजी  पंत  ने  सुना  तो  वहीँ  रुक  गए   और  विचार  करने  लगे  कि   हे  भगवान  !   विद्या  के  अभिमान  के  कारण   मुझे  ब्रह्मराक्षस  बनना  पड़ेगा  ,  प्रेतयोनि  में  भटकना  पड़ेगा   l   अपनी  होने  वाली  इस  दुर्गति  से  वे  घबरा  गए   और  मन  ही  मन    संत  ज्ञानेश्वर  के  प्रति  शरणागत   होकर  बोले  ---- "  मैं  आपकी  शरण  में  हूँ  ,  आपके  सिवाय  मुझे  बचाने   वाला  कोई  नहीं  है   l  "  ऐसा  सोचते  हुए  वे  आलंदी  की  ओर   चल  पड़े   और  जीवन  पर्यन्त  वहीँ  रहे  l   आलंदी  वह  स्थान  है  जहाँ  संत  ज्ञानेश्वर  ने  जीवित   समाधि   ली  थी    l   संत  की  शरण  में  जाने  से   उनका  अभिमान  चला  गया   और  वे  भी  संत  बन  गए   l 

WISDOM ------

   गुरुकुल  कांगड़ी  विश्वविद्यालय  की  स्थापना  प्रसिद्ध   संत  स्वामी  श्रद्धानंद   ने  की  थी  l   विश्वविद्यालय  की  स्थापना  से  पूर्व   एक  बार  वे   दिल्ली    के  एक   राय    साहब  के  घर   चंदा  मांगने  पहुंचे   l  उनका  उद्देश्य  था  कि   यदि  एकमुश्त  रकम  मिल  जाती   तो  विश्वविद्यालय   की  इमारतों   को  खड़ा  करने  में   सहयोग  मिलता  ,  पर  राय  साहब  ने   आर्थिक  सहयोग   देने  के  बजाय   उनका  अपमान  कर  के   उन्हें  घर  से  बाहर  निकलवा  दिया  l   स्वामी  श्रद्धानंद   ने  उसी   दिन  प्रण   किया  कि   वह  विश्वविद्यालय    केवल  निजी  प्रयासों  से  खड़ा  करेंगे  l   उन्होंने  हरिद्वार  वापस  लौटकर   अपना  पुश्तैनी  मकान   बेच  दिया   और  उससे  प्राप्त  सम्पति   गुरुकुल  बनाने   के  लिए  दान  कर  दी   l   गुरुकुल  की  स्थापना  होते  ही   उन्होंने  सबसे  पहले   अपने  पुत्र   को  उसमें   दाखिला  दिया  l   स्वामी जी  का  कहना  था   कि ---- " दान  लेने  का   सच्चा  अधिकारी   वही  है  ,  जिसने  पहले  सर्वस्व  दान   दिया  हो   l "  पं.  श्रीराम  शर्मा  आचार्य  जी   स्वामी  श्रद्धानंद   का  उदाहरण  देते  हुए  कहते  थे  कि ---- "  जनता  का  सहयोग    और  देवताओं  का  अनुग्रह    उन्ही   को  मिलता  है  ,  जिनकी  कथनी   और    करनी  में   भिन्नता   नहीं  होती   l