मनुष्य अपनी प्रवृतियों के अनुसार देवता या असुर कहलाता है l देवताओं की यह विशेषता होती है कि वे सन्मार्ग पर चलते हैं , कभी किसी का अहित नहीं करते , किसी का दिल नहीं दुखाते , नेक कर्म करते हैं l वे अमर होने का कोई प्रयास नहीं करते , उनके कर्म उनका नाम युगों - युगों तक अमर कर देते हैं l असुर देखने में तो मनुष्य शरीर में होते हैं लेकिन इन्हे दूसरों को कष्ट देने में बहुत आनंद आता है l असुरों की एक विशेषता होती है कि ये कठिन तपस्या कर लेते हैं जिससे इन्हे ईश्वर से वरदान मिल जाता है और ये अपार धन - सम्पदा के स्वामी होते है l इस कारण ये बहुत शक्तिशाली होते हैं और अपनी धन - सम्पदा के बल पर संसार पर अपनी हुकूमत चलाना चाहते हैं l आसुरी प्रवृति के कारण ये संवेदनहीन होते हैं और अत्याचार व अन्याय कर के लोगों को अपने नियंत्रण में रखते हैं l आसुरी प्रवृति के लोगों में अमरता की बड़ी गहरी चाह होती है जैसे रावण , हिरण्यकशिपु , भस्मासुर आदि अनेक असुरों ने भगवान की कठोर तपस्या कर अमरता का वरदान माँगा l अमर होना तो प्रकृति के नियमों के विरुद्ध है , इसलिए जब भगवान ने उन्हें अमर होने का वरदान नहीं दिया तो उन्होंने वे सारे विकल्प मांग लिए जिससे मृत्यु को उनके पास आने का अवसर न मिले l वरदान की शक्ति से स्वयं को अमर समझकर उन्होंने लोगों पर अत्याचार करना , अपने आतंक से उन्हें भयभीत करना शुरू कर दिया l भस्मासुर तो जिसके सिर पर हाथ रख देता था , वही भस्म हो जाता था l यही असुरता है l असुरता यही चाहती है कि उसका अस्तित्व बना रहे , लोग चाहे मरें या त्राहि - त्राहि करें l इस संसार में शुरू से ही देवत्व और असुरता में संघर्ष रहा है l जब युद्ध में देवता हारने लगते हैं तो असुरों से अपने प्राण बचाने के लिए भगवान की शरण में जाते हैं तब भगवान उन्हें यही कहते हैं तुम लोग जागरूक हो , संगठित हो l जब देवत्व प्रबल होगा तो असुरता अपने आप पराजित होगी l
12 December 2020
WISDOM ------
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं - " मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है स्वयं को बंदर की औलाद समझना l इस कारण हम अपने स्वरुप , कर्तव्य और उद्देश्य को भूल गए l जब हम स्वयं को ईश्वर की श्रेष्ठ संतान मानेंगे तभी हमारे कर्म , हमारा आचरण श्रेष्ठ होगा और उसके परिणाम भी सुखदायी होंगे ' विकास की प्रक्रिया में हमने यह माना कि हम अपनी प्रारम्भिक अवस्था में बंदर थे , विकसित होकर इस रूप में आ गए l ऐसा मानकर हमने भौतिक प्रगति तो बहुत की l विज्ञान ने हमें इतनी सुख - सुविधाएँ दीं जिसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी l लेकिन चेतना के स्तर पर हम कहाँ पहुंचे हैं ? संसार में बढ़ते अपराध , आतंक , युद्ध , छीना - झपटी ------- ------------------------------------- आचार्य श्री लिखते हैं ---- ' जब अपने से बड़ी शक्ति के साथ संबंध जोड़ने की महत्ता को छोटे बच्चे तक समझते हैं , फिर मनुष्य भगवान को घनिष्ठ बनाने में इतनी उपेक्षा क्यों बरतता है l ' केवल कर्मकांड कर के ही मनुष्य अपने आस्तिक होने का दिखावा करता है , आंतरिक परिष्कार नहीं करता l