चैतन्य महाप्रभु ने कहा है --- जो लोग केवल धार्मिक ग्रन्थ पढ़ लेने अथवा थोड़ा सा पूजा - पाठ कर कर लेने को धर्मात्मा का लक्षण मान बैठते हैं वे धार्मिक नहीं माने जा सकते l जब तक मनुष्य नैतिक , चारित्रिक और व्यावहारिक द्रष्टि से अपना सुधार नहीं करेगा तब तक वह धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी नहीं हो सकता l धर्म का पालन करने वाला वही हो सकता है जो अन्य मनुष्यों का हित साधन करे , किसी को शारीरिक , मानसिक पीड़ा नहीं पहुंचाए l '
महात्मा गाँधी के धार्मिक विचार थे ---- ' मनुष्य का , चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो , कोई काम तब तक सफल और लाभदायक न होगा , जब तक उसको कोई प्रमाणिक धार्मिक आधार न मिले l यहाँ धर्म से मेरा तात्पर्य उस धर्म से नहीं , जो आप संसार के समस्त धर्म - ग्रंथों को पढ़कर सीखते हैं l जिस धर्म से मेरा तात्पर्य है उसका सम्बन्ध ह्रदय से है l इस धर्म भावना को चाहे हम किसी बाहरी सहायता से प्राप्त करें और चाहे आत्मिक उन्नति से जाग्रत करें , पर यदि हम किसी काम को उचित रीति से करना चाहें तो हमको यह धर्म भाव अवश्य जागृत करना पड़ेगा l "
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने वाड्मय ' सांस्कृतिक चेतना के उन्नायक ' में लिखा है ---- ' जो लोग थोड़ा बहुत ऊपरी क्रिया - कांड कर के ही अपने को धार्मिक मानने लग जाते हैं , वे या तो दम्भी होते हैं या मूढ़ l सत्य धर्म का सम्बन्ध ह्रदय से ही रहता है और जो उसे समझ लेता है , वह फिर किसी धर्म का विरोध या अपमान नहीं करता l वह स्वयं अपने समाज के अनुसार ही बाह्य आचरण करता है और अपनी नियमित प्रणाली द्वारा ईश्वर की पूजा , उपासना भी करता रहता है , पर उनके कारण न तो वह किसी का विरोधी बनता है और न कोई ऐसा कार्य करता है , जिससे अन्य लोग उसके विरोधी बन जाये l वह सदैव इस बात को द्रष्टि में रखता है , कि जब सब लोगों का ईश्वर एक ही है , तो फिर आपस में वैर - विरोध रखने की क्या आवश्यकता है ? '
महात्मा गाँधी के धार्मिक विचार थे ---- ' मनुष्य का , चाहे वह कितना ही महान क्यों न हो , कोई काम तब तक सफल और लाभदायक न होगा , जब तक उसको कोई प्रमाणिक धार्मिक आधार न मिले l यहाँ धर्म से मेरा तात्पर्य उस धर्म से नहीं , जो आप संसार के समस्त धर्म - ग्रंथों को पढ़कर सीखते हैं l जिस धर्म से मेरा तात्पर्य है उसका सम्बन्ध ह्रदय से है l इस धर्म भावना को चाहे हम किसी बाहरी सहायता से प्राप्त करें और चाहे आत्मिक उन्नति से जाग्रत करें , पर यदि हम किसी काम को उचित रीति से करना चाहें तो हमको यह धर्म भाव अवश्य जागृत करना पड़ेगा l "
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य ने वाड्मय ' सांस्कृतिक चेतना के उन्नायक ' में लिखा है ---- ' जो लोग थोड़ा बहुत ऊपरी क्रिया - कांड कर के ही अपने को धार्मिक मानने लग जाते हैं , वे या तो दम्भी होते हैं या मूढ़ l सत्य धर्म का सम्बन्ध ह्रदय से ही रहता है और जो उसे समझ लेता है , वह फिर किसी धर्म का विरोध या अपमान नहीं करता l वह स्वयं अपने समाज के अनुसार ही बाह्य आचरण करता है और अपनी नियमित प्रणाली द्वारा ईश्वर की पूजा , उपासना भी करता रहता है , पर उनके कारण न तो वह किसी का विरोधी बनता है और न कोई ऐसा कार्य करता है , जिससे अन्य लोग उसके विरोधी बन जाये l वह सदैव इस बात को द्रष्टि में रखता है , कि जब सब लोगों का ईश्वर एक ही है , तो फिर आपस में वैर - विरोध रखने की क्या आवश्यकता है ? '