देश में धनी तो बहुत हैं, पर शिवप्रसाद जी की तरह अपने धन को सार्थक करने वाले थोड़े ही हैं । बाबू शिवप्रसाद ने अपना अधिकांश धन देश-सेवा, समाज-सेवा और मातृभाषा सेवा के लिये खर्च कर दिया । '
बाबू शिवप्रसाद गुप्त ( 1883-1948 ) का जन्म एक बड़े जमीदार वंश में हुआ था । उनके मुकाबले का रईस उस समय बनारस और दूर-दूर तक नहीं था । गुप्त जी की दानशीलता बहुत अधिक थी । यद्दपि अब भी देश में धार्मिक उत्सव, कथा, प्रवचन आदि पर लाखों रुपया खर्च कर डालने वाले धनवानों की कमी नहीं है, पर जनता न तो उनके नाम जानती है और न ही उन्हें याद रखती है ।
गुप्त जी का दान विचारपूर्ण और देश तथा समाज की द्रष्टि से हितकारी होता था । केवल नाम कमाने के लिए उन्होंने कभी दान नहीं किया । वे अधिकांश दान इस प्रकार करते थे कि उनके इष्ट-मित्रों तक को पता नहीं चलता था ।
एक जानकर व्यक्ति के कथनानुसार---- काशी विद्दापीठ व उसका पुस्तकालय, श्रीभगवानदास स्वाध्यायपीठ, भारत मंदिर, ज्ञान-मंडल, ' आज ' दैनिक पत्र आदि के संस्थापन व संचालन में ही उन्होंने बीस लाख रूपये तक खर्च किये । कितने ही गरीब विद्दार्थियों कों उच्च शिक्षा प्राप्त करने में पूरी सहायता दी, कुछ को तो विदेश जाकर पढ़ने का भी खर्च दिया । लोकसेवा के विभिन्न कार्यों में वे दस-दस, पांच-पांच हजार रुपया देते रहते थे ।
उनकी उदारता ऐसी थी कि उनके विरोधी भी उनसे सहायता प्राप्त कर लेते थे । वे स्वयं बहुत अधिक अध्ययन नही कर सके थे, पर उनके पुस्तकालय में देश-विदेश की बहुमूल्य पुस्तकें थीं ।
बाद में आपने इस विशाल संग्रह का एक बड़ा भाग काशी विद्दापीठ कों दे दिया जिसमे 3-4 लाख रूपये मूल्य की 26 हजार पुस्तकें थीं । गुप्त जी का बनवाया भारत माता का मंदिर भी अपूर्व है
बाबू शिवप्रसाद गुप्त ( 1883-1948 ) का जन्म एक बड़े जमीदार वंश में हुआ था । उनके मुकाबले का रईस उस समय बनारस और दूर-दूर तक नहीं था । गुप्त जी की दानशीलता बहुत अधिक थी । यद्दपि अब भी देश में धार्मिक उत्सव, कथा, प्रवचन आदि पर लाखों रुपया खर्च कर डालने वाले धनवानों की कमी नहीं है, पर जनता न तो उनके नाम जानती है और न ही उन्हें याद रखती है ।
गुप्त जी का दान विचारपूर्ण और देश तथा समाज की द्रष्टि से हितकारी होता था । केवल नाम कमाने के लिए उन्होंने कभी दान नहीं किया । वे अधिकांश दान इस प्रकार करते थे कि उनके इष्ट-मित्रों तक को पता नहीं चलता था ।
एक जानकर व्यक्ति के कथनानुसार---- काशी विद्दापीठ व उसका पुस्तकालय, श्रीभगवानदास स्वाध्यायपीठ, भारत मंदिर, ज्ञान-मंडल, ' आज ' दैनिक पत्र आदि के संस्थापन व संचालन में ही उन्होंने बीस लाख रूपये तक खर्च किये । कितने ही गरीब विद्दार्थियों कों उच्च शिक्षा प्राप्त करने में पूरी सहायता दी, कुछ को तो विदेश जाकर पढ़ने का भी खर्च दिया । लोकसेवा के विभिन्न कार्यों में वे दस-दस, पांच-पांच हजार रुपया देते रहते थे ।
उनकी उदारता ऐसी थी कि उनके विरोधी भी उनसे सहायता प्राप्त कर लेते थे । वे स्वयं बहुत अधिक अध्ययन नही कर सके थे, पर उनके पुस्तकालय में देश-विदेश की बहुमूल्य पुस्तकें थीं ।
बाद में आपने इस विशाल संग्रह का एक बड़ा भाग काशी विद्दापीठ कों दे दिया जिसमे 3-4 लाख रूपये मूल्य की 26 हजार पुस्तकें थीं । गुप्त जी का बनवाया भारत माता का मंदिर भी अपूर्व है