14 July 2019

WISDOM ------

  जब  लोग  पाप - पुण्य  के  वास्तविक  स्वरुप , संयम , शुद्ध  आचरण , परोपकार , सेवा  आदि  सत्कर्मों  को  भूलकर   केवल  किसी  देवता  की  मूर्ति  के  आगे  मस्तक  झुका  देना  और  कुछ  चढ़ावा  चढ़ा  देना  मात्र  को  को  ही  धर्म - पालन  समझने  लगते  हैं  ,  समझदार  व्यक्ति  भी  उससे  उदासीन  हो  जाते  हैं  तब  धर्म  और  जाति  की  अवनति  होती  जाती  है  l 
  स्वामी  दयानन्द  सरस्वती  के  जीवन  का   सर्वोपरि  उद्देश्य  हिन्दू  जाति  में  प्रचलित  हानिकारक  विश्वासों , कुरीतियों   और  रूढ़ियों  को  मिटाकर   उनके  स्थान  पर  समयोचित  लाभकारी  प्रथाओं  का  प्रचार  करना  था  l   धर्म - सुधार  और  समाज - सुधार  के   इस  महान  कार्य  में  उन्हें  समाज  के  बहुत  विरोध  का  सामना  करना  पड़ा  और  स्वामीजी  के  सम्मुख  अनेक   प्रलोभन  भी  आये  ,पर  वे  कभी  अपने  सिद्धांत  से  टस  से  मस  नहीं  हुए  l 
  एक  दिन  एकांत  में   उदयपुर  के  महाराणा  उनसे  मिले  तो  कहने  लगे --- " स्वामीजी  आप  मूर्ति पूजा  का  खंडन  छोड़  दें  ,  तो  उदयपुर  के  एकलिंग  महादेव  की  गद्दी  आपकी  ही  है  l  इतना  भारी  ऐश्वर्य  आपका  हो  जायेगा  और  आप  समस्त  राज्य  के  गुरु  माने  जायेंगे  l " 
स्वामीजी  किंचित  रोष पूर्वक  बोले  --- " राणाजी  !  आप  मुझे  तुच्छ  प्रलोभन  दिखाकर  परमात्मा  से  विमुख  करना  चाहते  हैं  l  आपके  जिस  छोटे  से  राज्य  और  मंदिर  से  मैं  एक  दौड़  लगाकर  बाहर  जा  सकता  हूँ  ,  वह  मुझे  अनंत  ईश्वर  की  आग्या  भंग  करने  के  लिए  विवश  नहीं  कर  सकता  l  परमात्मा  के  परम  प्रेम  के  सामने  इस  मरुभूमि  की   माया - मारीचिका  अति  तुच्छ  है  l  मेरे  धर्म  की  ध्रुव  धारणा  को  धराधाम  और  आकाश  की  कोई  वस्तु  डगमगा  नहीं  सकती  l  " 
  काशी  नरेश  ने  भी  उनसे   भारत  प्रसिद्द  विश्वनाथ  मंदिर  का  अध्यक्ष  बनने  का  प्रस्ताव  किया  था  l  गुजरात  के  एक  वकील  ने  उनसे  कहा  आप  मूर्ति पूजा  का  विरोध  करना  छोड़  दें  हम  आपको  शंकर जी  का  अवतार मानने  लगें  l  अनेक  स्थानों  में  उनसे  वैभवशाली  मंदिरों  का  अध्यक्ष  बन  कर  रहने  का  आग्रह  किया  गया  ,  अनेक  प्रलोभन  उनके  जीवन  में  आये  परन्तु  उन्होंने  सदैव  यही  उत्तर  दिया  कि   मेरा  कार्य  देश  और  जाति  की  सेवा  कर  के  सुधार  करना  है   न  कि  धन - सम्पति  इकट्ठी  कर  के  सांसारिक  भोगों  में  लिप्त  होना   l मैं  परमात्मा  के  दिखाए  श्रेष्ठ मार्ग  से  कभी  विमुख  नहीं  हो  सकता  l