संत रविदास मीराबाई के मार्गदर्शक और कबीरदास जी के समकालीन थे l संत रविदास जी चर्मकार का कार्य करते थे , परन्तु उनका व्यक्तित्व इतना उत्कृष्ट था कि उस समय जात - पाँत को मानने वाले समाज ने भी उन्हें संत की पदवी दी और उनकी महानता को स्वीकार किया l संत रविदास जी अपने कर्म को ही भगवान की पूजा मानते थे , उनका कहना था कि जो व्यक्ति अपना कर्तव्य कर्म पूरे मन से करता है , वही सच्चा धार्मिक व्यक्ति है l इनके बारे में एक प्रसिद्ध किवदंती है --- एक बार काशी के एक पंडित जी रविदास जी के पास गए l बातों - बातों में गंगा - पूजा की चर्चा चल पड़ी l रविदास जी ने पंडित जी से कहा --- " आप कृपा कर के मेरी भी सुपारी गंगा जी में चढ़ा देना l l " पंडित जी ने हामी भरते हुए उनकी सुपारी अपने पास रख ली l दूसरे दिन जब पंडित जी ने गंगा जी में रविदास जी की सुपारी चढ़ानी चाही , तब गंगा माँ ने हाथ ऊँचा कर के उस सुपारी को साक्षात् ग्रहण कर लिया और बदले में एक सोने का कंगन दिया l यह देखकर पंडित जी आश्चर्यचकित रह गए l उन्होंने वह कंगन रविदास जी को न देकर राजा को भेंट कर दिया , जिससे राजा प्रसन्न हो जाएँ l राजा ने उसे रानी को दे दिया l कंगन बहुत सुन्दर था , रानी उसकी जोड़ी का दूसरा कंगन पाने की जिद करने लगी l तब राजा ने पंडित को बुलवाया , पंडित ने घबरा कर सारी सच बात बता दी l अब राजा ने संत रविदास जी से कहा कि वे गंगा माँ से कंगन का दूसरा जोड़ा मांगे l कहते हैं उसके बाद रविदास जी ने अपनी झोंपड़ी में एक कठौती में गंगा माता से प्रकट होने की प्रार्थना की l उनकी श्रद्धा - भक्ति से प्रसन्न होकर माँ गंगा उनकी कठौती में आ गईं और उन्हें कंगन का दूसरा जोड़ा अपने हाथों से दे गईं l तभी से यह कहावत बन गई कि ' मन चंगा तो कठौती में गंगा l "
11 October 2020
WISDOM -----
भगवान बुद्ध के जीवन का प्रसंग है --- सारनाथ में धर्मचक्र प्रवर्तन के बाद भगवान बुद्ध लोगों को धर्म का उपदेश देने के लिए निकले l उन्होंने सभा - समितियाँ आयोजित कीं और आत्मिक प्रगति की शिक्षा देने लगे l सभा - समितियों में दस - पांच लोग भी नहीं आते l पांच - सात दिन तक वे प्रयत्न करते रहे l इस प्रयोग की विफलता के बारे में सोचते हुए बैठे ही थे कि उनके सामने कालपुरुष प्रकट हुआ और बोला ---" लोगों से कुछ लो , तभी वे आपसे ज्ञान प्राप्त करेंगे l नहीं लोगे तो उनका अहं आड़े आएगा और वे कुछ भी ग्रहण नहीं करेंगे l हैं तो वे याचक और दीन ही , पर अपने आप के बारे में इस तरह का आभास नहीं होने देना चाहते l " कालपुरुष के इस परामर्श के बाद ही महात्मा बुद्ध ने अपने हाथ में भिक्षापात्र पकड़ा और राह चलते हुए लोगों के द्वार पर जाकर भिक्षा मांगी l इसके बाद ही उन्हें धर्म का उपदेश दिया l