27 June 2023

WISDOM -----

     पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं ---- 'प्रशंसा  के  अनेक  भेद  हैं  l    प्रशंसा  को  अपना  स्वार्थ  साधने  के  लिए , अपना  काम  निकालने  के  लिए  , देश-काल-परिस्थिति  का  ज्ञान  किए   बगैर  करने  को   चाटुकारिता  कहा  जाता  है  l    जो  इनसान  चाटुकारिता प्रिय   होता  है  , उसमे  विवेक  का  घोर  अभाव  होता  है   और  वह  बिना  विचारे  अपनी  प्रशंसा  करने  वालों  पर  मेहरबान  हो  जाता  है  l  '  राजतन्त्र  में  राजा  को  खुश  करने  के  लिए  विशेष  रूप  से  चाटुकारों  की  व्यवस्था  की  जाती  थी  l  उनका  काम  ही  था  कि  वे  राजाओं  के  विभिन्न  कार्यों , गुणों  आदि  की  प्रशंसा  करें  l  वे  लोग  बड़े  विशेषज्ञ   होते  थे   और  वही  बोलते  थे  , जो  राजा  को  पसंद  हो  फिर  चाहे  वह  सत्य  हो  या  झूठ  हो  l    वर्तमान  समय  में  चाटुकारिता  का  दायरा  बहुत  व्यापक  हो  गया  है   l  अब  केवल  मुँह  से  बोलकर  ही  चापलूसी  नहीं  होती  l   कहीं  अपार  धन  दे  कर ,   चुनाव  जिताने  में  योगदान  देकर  , अपने  नेता   की  वाहवाही  करने  वालों  की  संख्या  बढ़ाकर   आदि   अनेक  तरीकों  से  चापलूसी  की  जाती  है  l  अपने  अधिकारी  को  खुश  करने  के  लिए   लोग  उनकी  पत्नी  और  बच्चों  तक  की  खुशामद  करते  हैं  l  कहीं  तो  हाल  ऐसा  भी  है  कि  सुबह  जागने  से  रात  को  सुलाने  तक  चापलूस  पीछा  नहीं  छोड़ते  l  इस  कारण  चाहे  छोटा  अधिकारी  हो  या  बड़ा  नेता  ,  उनकी   स्वयं  की  बुद्धि  काम  करना  बंद  कर  देती  है , पूरी  व्यवस्था  चाटुकारों  के  इशारे  पर  चलती  है  l   वर्तमान  युग  में  जब  सम्पूर्ण  विश्व  एक  मंच  पर  है  , चाटुकारिता  का  एक  नया  रूप  संसार  में  है  जो  मानव  सभ्यता  के  लिए  खतरे  की  घंटी  है  l  स्वयं  को  चापलूस  कहलाने  से  कद  कुछ  कम  हो  जाता  है  , इसलिए   जिनके  पास  अपार  धन -वैभव  है ,  वे   उस  धन  का  दान -पुण्य  भी  करते  हैं   लेकिन  इसमें  उनका  नि :स्वार्थ  भाव  नहीं  होता  , वे  अपने  धन  के  बल  पर  बड़े -बड़े  नेताओं ,  अधिकारियों  , संस्थाओं  को  भी  अपने  नियंत्रण  में  कर  लेते  हैं  l  मानव जीवन  के  विभिन्न  क्षेत्रों  से  संबंधित  नीति  निर्धारण  में  भी  उनका  दखल  हो  जाता  है  l  फिर  वे  ही  नीतियाँ   लागू  होती  हैं  जिसमे  उनका  हित  हो , उनकी  संपदा  बढ़े  l  प्रजा   का  हित  उपेक्षित  हो  जाता  है  l  धन  मानव  जीवन  के  लिए  अति  आवश्यक  है   लेकिन  जब   यही  धन  मानव  जीवन  के  विभिन्न  क्षेत्रो ---शिक्षा , चिकित्सा , कृषि , मनोरंजन   आदि  पर  अपना  कब्ज़ा  कर  लेता  है  तो  वह  उसे  व्यवसाय  बन  देता  है   और   व्यापार    का  मुख्य  उदेश्य  ही  लाभ  कमाना  है  l