पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं ---- ' मैं ' है मनुष्य और भगवान के बीच की दीवार l ' स्वार्थी व्यक्ति को अपने आप से फुर्सत नहीं मिलती l उसके लिए समाज सेवा गई भाड़ में l ' आचार्य श्री लिखते हैं --- ' उसका ' मैं ' इतना बढ़ा हुआ होता है कि वह अपने ' मैं ' के लिए सबको इस्तेमाल करना चाहता है l यहाँ तक कि भगवान को , सिद्ध पुरुषों को , देवी - देवताओं को भी अपने ' मैं ' के लिए इस्तेमाल करना चाहता है l अहंताएं इतनी ज्यादा बढ़ी हुई हैं कि स्वार्थ के अलावा आदमी दूसरी चीज का विचार ही नहीं कर सकता l " आचार्य श्री का कहना है --- जिसका अहम् , जिसका स्वार्थ , जिसकी भौतिक महत्वाकांक्षाएं जितनी अधिक बढ़ी - चढ़ी हैं , वह भगवान से , राम के नाम से उतना ही दूर है l जो जितना ख्वाहिशमंद है , ' नीडी ' है उसको अपनी जरूरतों को पूरा करने और दूसरों को नीचा दिखाने के लिए तैयारियाँ करने के अतिरिक्त फुरसत ही कहाँ मिलती है ? वह समाज के लिए , देश के लिए , भगवान के लिए , यहाँ तक कि अपनी जीवात्मा के लिए भी कुछ नहीं कर सकता l समूचा जीवन अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में ही खतम कर डालता है l