पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- " मरने के लिए हर मानव को हर घड़ी तैयार रहना चाहिए l यह शरीर कभी न कभी विनष्ट होना ही है , लेकिन आत्मा कभी नहीं मरती l आत्मा को ऊँचा उठाने के प्रयास जीवनपर्यन्त किये जाते रहें तो भावी जन्म सार्थक किया जा सकता है l " पुराण की एक कथा है ----- राजा परीक्षित को ऋषि ने श्राप दिया था कि सातवें दिन सर्प के काटने से उनकी मृत्यु हो जाएगी l मृत्यु का कष्ट न हो मोक्ष मिले इस उद्देश्य से वे शुकदेव जी से भागवत कथा सुन रहे थे l छह दिन बीत गए l मरने की घड़ी निकट आती देख राजा क्षुब्ध हो रहा था , तब शुकदेव जी ने राजा को एक कथा सुनाई ------ ' एक राजा जंगल में शिकार खेलने गया l घने जंगल में वह रास्ता भटक गया l तेज वर्षा होने लगी , सिंह , व्याघ्र बोलने लगे l राजा डर गया और रात्रि में विश्राम का स्थान ढूंढ़ने लगा l कुछ दूर उसने दीपक जलता देखा , वहां गया , वह एक बहेलिए की झोंपड़ी थी l बहेलिया बीमार था , चल - फिर नहीं सकता था l झोंपड़ी में ही एक कोने में मलमूत्र त्यागने का स्थान था , खाने के लिए जानवरों का मांस झोंपड़ी की छत से लटका था l बहुत गन्दी , अँधेरी और दुर्गन्धयुक्त झोंपड़ी थी l कोई और आश्रय नहीं था इसलिए विवशतावश राजा ने बहेलिये से उस की झोंपड़ी में रुकने की प्रार्थना की l बहेलिये ने कहा --- आप यह प्रतिज्ञा करो कि सुबह इस झोंपड़ी को खाली कर चले जाओगे क्योंकि और भी राहगीर यहाँ आते हैं , रुकते हैं , फिर उन्हें झोंपड़ी की गंध इतनी भा जाती है कि वह इसे छोड़ना ही नहीं चाहते , इस पर अपना कब्ज़ा जमाते हैं l ' राजा ने प्रतिज्ञा की , कसम खाई कि वह सुबह इस झोंपड़ी को खाली कर देगा l प्रात:काल राजा और ठहरने के लिए बहेलिये से आग्रह करने लगा l उसे वह गंध इतनी अच्छी लगी कि झोंपड़ी को त्यागने के नाम से उसे बड़ा कष्ट और दुःख होने लगा l राजा की बहेलिये से बहुत बहस हुई , बड़ा झंझट हुआ , उपद्रव और कलह हो गया , राजा मरने - मारने पर उतारू हो गया l शुकदेव जी ने पूछा ---- " परीक्षित ! बताओ , क्या यह झंझट उचित था ? ' परीक्षित ने कहा --- ' भगवान ! वह कौन सा राजा था , बड़ा मुर्ख था , जो अपनी प्रतिज्ञा तोड़कर , नियत अवधि से अधिक रहना चाहता था l उसकी मूर्खता पर मुझे क्रोध आता है l " शुकदेव जी के कहा --- " वह और कोई नहीं स्वयं तुम हो l इस मलमूत्र की कोठरी देह में , जितने समय तुम्हारी आत्मा को रहना आवश्यक था , वह अवधि पूरी हो गई l अब तुम झंझट कर रहे हो , मरने का शोक कर रहे हो , क्या यह उचित है ? " राजा ने कथा का मर्म समझा और मृत्यु भय को भुलाते हुए मानसिक रूप से निर्वाण के लिए तैयारी की l कथा का यही शिक्षण है -- हम भयभीत न हों , सत्कर्म करें और ईश्वर से सद्बुद्धि की प्रार्थना करें l