10 May 2021

WISDOM ------

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं --- "  मरने  के  लिए  हर  मानव  को  हर  घड़ी   तैयार  रहना  चाहिए  l   यह  शरीर  कभी  न  कभी   विनष्ट  होना  ही  है  ,  लेकिन  आत्मा  कभी  नहीं  मरती  l  आत्मा  को  ऊँचा  उठाने  के  प्रयास    जीवनपर्यन्त   किये   जाते  रहें   तो  भावी   जन्म सार्थक  किया  जा  सकता  है   l  "    पुराण  की  एक  कथा  है -----  राजा  परीक्षित  को  ऋषि  ने  श्राप  दिया  था  कि  सातवें  दिन   सर्प  के  काटने  से  उनकी  मृत्यु  हो  जाएगी  l   मृत्यु  का  कष्ट  न  हो  मोक्ष  मिले  इस  उद्देश्य  से  वे  शुकदेव जी  से  भागवत  कथा  सुन  रहे  थे  l   छह  दिन  बीत  गए  l  मरने  की  घड़ी   निकट  आती  देख  राजा  क्षुब्ध  हो  रहा  था  , तब  शुकदेव जी  ने  राजा  को   एक कथा  सुनाई ------ ' एक  राजा  जंगल  में  शिकार  खेलने  गया  l   घने  जंगल  में  वह  रास्ता  भटक   गया l  तेज  वर्षा  होने  लगी , सिंह , व्याघ्र  बोलने  लगे  l   राजा  डर   गया  और  रात्रि  में  विश्राम  का  स्थान  ढूंढ़ने   लगा  l  कुछ  दूर  उसने  दीपक  जलता  देखा  , वहां  गया   ,  वह  एक  बहेलिए   की  झोंपड़ी  थी  l   बहेलिया  बीमार  था  , चल - फिर  नहीं  सकता  था  l   झोंपड़ी  में  ही  एक  कोने  में  मलमूत्र  त्यागने  का  स्थान  था  ,  खाने  के  लिए  जानवरों   का मांस   झोंपड़ी  की  छत  से  लटका  था  l  बहुत  गन्दी , अँधेरी  और  दुर्गन्धयुक्त  झोंपड़ी  थी  l  कोई  और  आश्रय  नहीं  था  इसलिए  विवशतावश  राजा  ने  बहेलिये  से  उस  की  झोंपड़ी  में  रुकने  की  प्रार्थना  की  l   बहेलिये ने  कहा  --- आप  यह  प्रतिज्ञा  करो  कि  सुबह  इस  झोंपड़ी  को  खाली   कर  चले  जाओगे  क्योंकि  और  भी  राहगीर  यहाँ  आते  हैं , रुकते  हैं  ,  फिर  उन्हें  झोंपड़ी  की  गंध  इतनी  भा  जाती  है  कि   वह  इसे  छोड़ना  ही  नहीं  चाहते  ,  इस  पर  अपना  कब्ज़ा  जमाते  हैं  l ' राजा  ने  प्रतिज्ञा  की  , कसम  खाई  कि   वह  सुबह  इस  झोंपड़ी  को  खाली   कर  देगा   l   प्रात:काल  राजा  और  ठहरने  के  लिए  बहेलिये  से  आग्रह  करने  लगा  l  उसे  वह    गंध  इतनी  अच्छी  लगी  कि   झोंपड़ी  को  त्यागने  के   नाम से  उसे  बड़ा  कष्ट  और  दुःख  होने  लगा  l  राजा  की  बहेलिये  से  बहुत  बहस  हुई  ,  बड़ा  झंझट  हुआ  ,   उपद्रव  और  कलह   हो  गया  ,  राजा  मरने - मारने  पर   उतारू  हो  गया  l   शुकदेव  जी  ने  पूछा  ---- " परीक्षित  !  बताओ  ,  क्या  यह  झंझट  उचित  था  ? ' परीक्षित  ने  कहा --- ' भगवान  !  वह  कौन  सा  राजा  था  ,  बड़ा  मुर्ख  था  , जो  अपनी  प्रतिज्ञा  तोड़कर ,  नियत  अवधि  से  अधिक  रहना  चाहता  था  l   उसकी  मूर्खता  पर  मुझे  क्रोध  आता  है  l  "  शुकदेव जी  के  कहा --- " वह  और  कोई  नहीं  स्वयं  तुम  हो  l  इस  मलमूत्र  की कोठरी  देह  में  ,  जितने  समय  तुम्हारी  आत्मा  को  रहना  आवश्यक  था  , वह  अवधि   पूरी  हो  गई   l   अब  तुम  झंझट  कर  रहे  हो  , मरने  का  शोक   कर रहे  हो   , क्या  यह  उचित  है   ? "  राजा  ने  कथा  का  मर्म  समझा   और  मृत्यु भय   को   भुलाते   हुए    मानसिक  रूप  से   निर्वाण  के  लिए   तैयारी   की  l  कथा  का  यही   शिक्षण है  -- हम  भयभीत   न हों  , सत्कर्म  करें  और  ईश्वर  से  सद्बुद्धि  की  प्रार्थना  करें   l