' धरती पर प्रेम , आत्मीयता एवं दूसरों के हित में लगे रहना ही पुण्य है , पूजा है |'
डॉ अल्वर्ट श्वाइत्जर का जन्म जर्मनी में हुआ था | उन्होंने अपना सारा जीवन अफ्रीका के कांगो में लाम्वार्ने नामक स्थान पर हब्शियों की सेवा में लगा दिया | उनकी करुणा , दया और सेवा-भावना की गहराई को समझने वाले उन्हें श्रद्धावश बोधिसत्व की संज्ञा देते हैं |
आरंभ में उनकी इच्छा धर्माचार्य और महान संगीतज्ञ बनने की थी | उन्होंने संगीत , धर्म , दर्शन का अध्ययन किया किंतु एक छोटी - सी घटना ने उनकी जीवन धारा बदल दी |
एक बार एक मित्र से मिलने वे पेरिस गये | वहां उनकी द्रष्टि मेज पर पड़ी एक पत्रिका पर पड़ी , उन्होंने उसे हाथ में लिया तो उनकी नजर उसमे छपी अपील पर पड़ गई जिसमे लिखा था --
" अफ्रीका में प्रशिक्षित चिकित्सकों का बहुत अभाव है | वहां के असहाय लोग भयानक रोगों से पीड़ित होकर मर रहें हैं | जिन्हें अपनी आत्मा में यह अनुभव हो कि परमात्मा ने उन्हें उन असहाय मानवों की सेवा के लिये पहले से चुन लिया है , वे इस ओर ध्यान दें | "
डॉ श्वाइत्जर को लगा जैसे ईश्वर ने उन्हें ही इस कार्य के लिये चुना है | उस महामानव ने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को विदा किया और 7 वर्ष तक चिकित्सा-शास्त्र का गहन अध्ययन किया | फिर महान मानव दम्पति अफ्रीका के लाम्वार्ने नामक स्थान पर पहुँचे , और वहां एक चिकित्सालय खोला | कुछ ही समय में उन्होंने लगभग 250 असाध्य रोगियों को नया जीवन दिया |
डॉ श्वाइत्जर के इस पुण्य कार्य से हब्शी उन्हें देवता की तरह पूजने लगे |
अब उनका यह सेवा-कार्य आध्यात्मिक साधना के रूप में बदल गया , उनको विश्वास हो गया कि मानव-सेवा के माध्यम से साक्षात परमात्मा की ही भक्ति कर रहे हैं |आध्यात्मिक विश्वास के साथ सेवा करते-करते मान-अपमान और हानि-लाभ से परे वे सच्चे योगी बन गये और उनका चिकित्सालय सेवाश्रम | जीवन की अंतिम श्वास तक वे सेवा कार्य में लगे रहे |
उनके आश्रम में जहाँ एक ओर रोगी हब्शी थे , वहां दूसरी ओर बहुत से पशु -पक्षी - हिरन ,चीतर ,गुरिल्ला , चिम्पांजी ,बतख , मुर्गी , उल्लू आदि भी थे | यह सब वही पशु-पक्षी थे जो एक बार रोगी होने के कारण उपचार के लिये डॉ श्वाइत्जर के पास लाये गये थे और फिर स्वस्थ होने पर अपने प्रेमी सेवक को छोड़कर दुबारा जंगल में नहीं गये | उन्हें मानव -जाति के साथ अन्य जीवों से भी प्यार था | मानव-सेवा के सराहनीय कार्य के लिये उन्हें 1948 में नोबेल पुरस्कार दिया गया जिसकी
समग्र धन-राशि उन्होंने कुष्ठ-सेवाश्रम खोलने में लगा दी |
उन्होंने कहा था--" मनुष्य एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व है और उसे उसी रूप में मानकर व्यवहार करना चाहिये | सभी जीवों के प्रति दया व करुणा भावना ही वह उपाय है जिससे कि हम उस मार्ग पर आगे बढ़ सकेंगे जो एक युद्धविहीन जगत की ओर जाता है | "
आधुनिक बोधिसत्व सन्त श्वाइत्जर आजीवन मानव सेवा करते और सत्य का संदेश देते हुए 90 वर्ष की आयु में मानव देह से मुक्त हो गये |
डॉ अल्वर्ट श्वाइत्जर का जन्म जर्मनी में हुआ था | उन्होंने अपना सारा जीवन अफ्रीका के कांगो में लाम्वार्ने नामक स्थान पर हब्शियों की सेवा में लगा दिया | उनकी करुणा , दया और सेवा-भावना की गहराई को समझने वाले उन्हें श्रद्धावश बोधिसत्व की संज्ञा देते हैं |
आरंभ में उनकी इच्छा धर्माचार्य और महान संगीतज्ञ बनने की थी | उन्होंने संगीत , धर्म , दर्शन का अध्ययन किया किंतु एक छोटी - सी घटना ने उनकी जीवन धारा बदल दी |
एक बार एक मित्र से मिलने वे पेरिस गये | वहां उनकी द्रष्टि मेज पर पड़ी एक पत्रिका पर पड़ी , उन्होंने उसे हाथ में लिया तो उनकी नजर उसमे छपी अपील पर पड़ गई जिसमे लिखा था --
" अफ्रीका में प्रशिक्षित चिकित्सकों का बहुत अभाव है | वहां के असहाय लोग भयानक रोगों से पीड़ित होकर मर रहें हैं | जिन्हें अपनी आत्मा में यह अनुभव हो कि परमात्मा ने उन्हें उन असहाय मानवों की सेवा के लिये पहले से चुन लिया है , वे इस ओर ध्यान दें | "
डॉ श्वाइत्जर को लगा जैसे ईश्वर ने उन्हें ही इस कार्य के लिये चुना है | उस महामानव ने अपनी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को विदा किया और 7 वर्ष तक चिकित्सा-शास्त्र का गहन अध्ययन किया | फिर महान मानव दम्पति अफ्रीका के लाम्वार्ने नामक स्थान पर पहुँचे , और वहां एक चिकित्सालय खोला | कुछ ही समय में उन्होंने लगभग 250 असाध्य रोगियों को नया जीवन दिया |
डॉ श्वाइत्जर के इस पुण्य कार्य से हब्शी उन्हें देवता की तरह पूजने लगे |
अब उनका यह सेवा-कार्य आध्यात्मिक साधना के रूप में बदल गया , उनको विश्वास हो गया कि मानव-सेवा के माध्यम से साक्षात परमात्मा की ही भक्ति कर रहे हैं |आध्यात्मिक विश्वास के साथ सेवा करते-करते मान-अपमान और हानि-लाभ से परे वे सच्चे योगी बन गये और उनका चिकित्सालय सेवाश्रम | जीवन की अंतिम श्वास तक वे सेवा कार्य में लगे रहे |
उनके आश्रम में जहाँ एक ओर रोगी हब्शी थे , वहां दूसरी ओर बहुत से पशु -पक्षी - हिरन ,चीतर ,गुरिल्ला , चिम्पांजी ,बतख , मुर्गी , उल्लू आदि भी थे | यह सब वही पशु-पक्षी थे जो एक बार रोगी होने के कारण उपचार के लिये डॉ श्वाइत्जर के पास लाये गये थे और फिर स्वस्थ होने पर अपने प्रेमी सेवक को छोड़कर दुबारा जंगल में नहीं गये | उन्हें मानव -जाति के साथ अन्य जीवों से भी प्यार था | मानव-सेवा के सराहनीय कार्य के लिये उन्हें 1948 में नोबेल पुरस्कार दिया गया जिसकी
समग्र धन-राशि उन्होंने कुष्ठ-सेवाश्रम खोलने में लगा दी |
उन्होंने कहा था--" मनुष्य एक आध्यात्मिक व्यक्तित्व है और उसे उसी रूप में मानकर व्यवहार करना चाहिये | सभी जीवों के प्रति दया व करुणा भावना ही वह उपाय है जिससे कि हम उस मार्ग पर आगे बढ़ सकेंगे जो एक युद्धविहीन जगत की ओर जाता है | "
आधुनिक बोधिसत्व सन्त श्वाइत्जर आजीवन मानव सेवा करते और सत्य का संदेश देते हुए 90 वर्ष की आयु में मानव देह से मुक्त हो गये |