पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी का कहना है ---- ' वे सारे कर्म जिनसे आत्मा का विकास हो , परमात्मा का सामीप्य प्राप्त हो और संसार का हित - साधन हो , जीवन का सदुपयोग है ---- स्वार्थ त्याग कर परमार्थ करना , अभाव एवं आवश्यकता से पीड़ित व्यक्तियों की सहायता करना , , दींन - दुःखियों , निरुपाय एवं रोगी जनों की सेवा करना , अपने धन , अपने पुरुषार्थ , अपनी शक्ति , अपनी योग्यता को समाज की उन्नति तथा विकास में लगाना ही जीवन का सदुपयोग करना है l संवेदना , सौहार्द , दया , करुणा , प्रेम तथा क्षमा भावों का अपनी आत्मा में विकास करना ही मानव जीवन का सम्मान करना है l इन सब सद्गुणों से संपन्न मनुष्य ही देवतुल्य है l
इसके विपरीत सारे कर्म और सारे मंतव्य जीवन का दुरूपयोग हैं , उसको नष्ट करना है l अपनी हीन तथा निम्न वृत्तियों को तुष्ट करने के लिए लोग प्राय: अहंकार का पालन किया करते हैं , उनके अहंकार के नीचे दबकर कितने ही निरपराध और असहाय लोगों का बलिदान हो जाता है l दूसरे की उन्नति तथा प्रगति देख जल उठना , दूसरे के विकास में बाधा डालना , अपनी दुर्बलता पर जरा सा आघात पाकर सर्प की तरह कुपित होकर अपना अथवा पराया अनिष्ट कर डालने को तत्पर होना --- यह सब आसुरी और अमानवीय प्रवृतियां हैं l ऐसे लोगों को न तो इस लोक में शांति व संतोष है और न ही परलोक में सद्गति है l
आचार्य श्री ने लिखा है --- ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को चयन की स्वतंत्रता दी है l देवता बनना अथवा असुर बनना यह मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है l
मनुष्य अपने कर्मों से ही अपना भाग्य लिखता है , कहा भी गया है ---- ' कर्म प्रधान विश्व रचि राखा , जो जस करहि सो तस फल चाखा l '
इसके विपरीत सारे कर्म और सारे मंतव्य जीवन का दुरूपयोग हैं , उसको नष्ट करना है l अपनी हीन तथा निम्न वृत्तियों को तुष्ट करने के लिए लोग प्राय: अहंकार का पालन किया करते हैं , उनके अहंकार के नीचे दबकर कितने ही निरपराध और असहाय लोगों का बलिदान हो जाता है l दूसरे की उन्नति तथा प्रगति देख जल उठना , दूसरे के विकास में बाधा डालना , अपनी दुर्बलता पर जरा सा आघात पाकर सर्प की तरह कुपित होकर अपना अथवा पराया अनिष्ट कर डालने को तत्पर होना --- यह सब आसुरी और अमानवीय प्रवृतियां हैं l ऐसे लोगों को न तो इस लोक में शांति व संतोष है और न ही परलोक में सद्गति है l
आचार्य श्री ने लिखा है --- ईश्वर ने प्रत्येक मनुष्य को चयन की स्वतंत्रता दी है l देवता बनना अथवा असुर बनना यह मनुष्य की इच्छा पर निर्भर है l
मनुष्य अपने कर्मों से ही अपना भाग्य लिखता है , कहा भी गया है ---- ' कर्म प्रधान विश्व रचि राखा , जो जस करहि सो तस फल चाखा l '