12 February 2021

WISDOM ------

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  कहते  हैं ----- ' देवत्व  का  अर्थ  है  -- भावनाओं  की  समृद्धता  और  अंत :करण   की  उदारता   l   जिसे  यह  समझ  में  आ  जाता  है  कि  जितना  मुझे  मिला  है  ,  उतना  मैं  बांटना  शुरू  कर  दूँ  -- वह  सच्चे  अर्थों  में  देवत्व  का  अधिकारी  बन  जाता  है  l '  पुराण  में  एक  कथा  है  ---- एक  बार  नारद जी  ने   ब्रह्माजी  से  पूछा  ---- देवता  और  असुर  दोनों  ही  आपकी  संतान  है  ,  फिर  देवताओं  को  अमृत  मिला  ,  असुरों  को  नहीं   l   आपकी  सृष्टि  में  यह  भेदभाव  क्यों  ?  '  ब्रह्माजी  ने  उत्तर  दिया  ---- '  देवर्षि  ! देवता  होना  या  असुर  होना   ,  मन:स्थिति  के  आधार  पर  तय  होता  है  ,  वंश  के  आधार  पर  नहीं   l   यदि  वंश  के  आधार  पर  कोई  देवता  बनता   तो  बलि , प्रह्लाद   या  विरोचन   देवता  क्यों  कहलाते    l   इनमें  से  सभी  असुरों  के  वंश  में  जन्मे  थे  ,  जबकि  रावण   सप्त  ऋषियों  के  वंश  में  जन्म  लेने  के  बाद  भी  राक्षस  ही  कहलाया  l     यह     निर्धारण  अंत:करण   की  उदारता   के  आधार  पर  है  l   जिसके  अंत:करण   में   उदारता  है  ,  वह  देवता  है  l    जिसके    अंत:करण   में    संकीर्णता  है  ,  जो  दूसरों  से  छीनने  का  भाव  रखता  हो     वह  असुर   है   l  "     ब्रह्माजी   ने   इस  बात  को  प्रयोग  द्वारा  स्पष्ट  करने  के  लिए  सांयकाल  के  भोजन  के  लिए   देवताओं  और  असुरों  को  आमंत्रित  किया  l   पहले  असुरों  को  बुलाया  l   भोजन  परोसा  गया  ,  तब  ब्रह्माजी  ने  कहा   कि   शर्त  यह  है  कि  इस  भोजन  को  बिना  कोहनी    मोड़े      ग्रहण  करना  है  l   असुर   इस  तरह  भोजन  ग्रहण  नहीं  कर  पाए  l   फिर  देवताओं  को  भोजन  के  लिए  बुलाया  गया  l   ब्रह्माजी  ने  उनके  सामने  भी  यही  शर्त  रखी   कि   बिना  कोहनी     मोड़े   भोजन  करना  है  l   सब  देवता  एक  दूसरे  के  सामने  बैठ  गए   और  बिना  कोहनी  मोड़े   सबने  अपने  सामने  बैठे  देवता  को  भोजन  खिला  दिया   l   इस  तरह  सभी  का  पेट  भर  गया  और  सब  संतुष्ट  हुए  l   यह  देखकर   देवर्षि   नारद   की  जिज्ञासा  का   समाधान    हो  गया    और  वे  समझ  गए   कि   देवता   वो  होते  हैं  जो  बांटना  जानते  हैं ,  जिनमे  उदारता   होती  है   l