ऋषियों का कहना है ---- ' चींटी का संगृहीत अन्न , मक्खी का संचित शहद और कृपण का संचित धन उनको छोड़ सबके काम आता है l अत: धन का सदुपयोग उसके सार्थक कार्यों में निवेश से है , निरर्थक संग्रह से नहीं l ' ------ एक अमीर सेठ अपनी तिजोरी में सोने की ईंट रखता था और प्रतिदिन उसे खोलकर देखता फिर तिजोरी बंद कर देता l बहुत खुश होता कि उसके पास अपार संपत्ति है l पुत्र ने उसे ऐसा करते देख लिया , वह अपने पिता की कंजूसी से बड़ा परेशान था l तो उस पुत्र ने तिजोरी की चाबी निकाल कर एक -एक सोने की ईंट खिसकाना आरम्भ किया और उसके स्थान पर पीतल की ईंट रखता रहा l इस तरह नाटक करते सारा जीवन बीत गया l अंत समय जब सेठ मरने लगा तो लड़के ने कहा ---- " पिताजी , एक रहस्य की बात बताऊँ , जो आपसे अब तक छुपा रखी थी l " पिता ने कहा ---- " जरुर बताओ बेटा l " पुत्र ने कहा --- " पिताजी , जिन ईंटों को देखकर आप इतना खुश होते थे , वे तो पीतल की हैं l सोने की ईंट तो हमने कब की बेच डालीं l " पिता यह सुनकर रोने लगा , उसको बहुत धक्का लगा , आँखें खुली की खुली रह गईं , उसका हार्ट फेल हो गया l
10 October 2022
WISDOM ---
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ----' देवता यदि कहीं हैं , तो हमारे ही अन्दर सत्प्रवृत्तियों के रूप में हैं l और असुर हैं , तो वे भी हमारे अन्दर पाशविक प्रवृत्तियों के रूप में हैं l जो विवेकशील हैं, वे विलास उपभोग के मायाजाल में न पड़कर पाशविक प्रवृत्तियों को स्वयं पर हावी नहीं होने देते l ' देवराज इंद्र को असुरों से अनेक बार परस्त होना पड़ा l भगवान की विशेष सहायता से ही बड़ी कठिनाई के साथ अपना इन्द्रासन लौटाने में सफल हो सके l एक दिन इस बार -बार की पराजय का कारण प्रजापति से पूछा , तो उन्होंने कहा --- ऐश्वर्य की रक्षा संयम से होती है l जो वैभव पाकर प्रमाद में फंस जाते हैं , उन्हें पराभव का मुँह देखना पड़ता है l एक कथा है ------- दो संत तीर्थ यात्रा पर जा रहे थे l एक विशालकाय वृक्ष के नीचे उन्होंने आश्रय लिया और आगे बढ़े l यात्रा से जब अगले वर्ष वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि जिस सघन वृक्ष की छाया में उन्होंने भोजन किया था , विश्राम किया था , वह गिरा पड़ा है l पहले संत ने अपने वरिष्ठ संत से पूछा --- " महात्मन ! यह कैसे हुआ ? इतनी अल्प अवधि में यह वृक्ष कैसे गिर गया ? " संत बोले --- " तात ! यह वृक्ष छिद्रों के कारण गिरा है l प्राण था --- इसका जीवन रस , जो गोंद रूप में सतत बहता रहा l उसे पाने की लालसा में मनुष्य ने उसमें छेद कर उसे खोखला बना दिया l खोखली वस्तु कभी खड़ी नहीं रह सकती l झंझावातों को सहन न कर पाने के कारण ही इसकी यह गति हुई है l '