यह जगत और जीवन कर्मानुसार है । कर्मफल विधान नियंता का अकाट्य नियम है । इसे न तो तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है और न ही परिवर्तित किया जा सकता है । प्रत्येक शुभ कर्म अपना परिपाक होने पर शुभ फल अवश्य देता है । इसी तरह प्रत्येक अशुभ कर्म अपना परिपाक होने पर अशुभ फल अवश्य प्रस्तुत करता है ।
विवेकहीन मनुष्य इस सत्य को देख नहीं पाते इसलिये वे दूसरों पर दोषारोपण करते हुए उनपर मिथ्या कलंक लगाते हैं । जबकि सच यह है कि जितना समय वे दोषारोपण करने में लगाते हैं . उतना समय यदि सत्कर्म करने में, ईश्वर का स्मरण करने में लगाएँ तो उनके पूर्वकृत कर्मो का सहज ही प्रायश्चित हो जाये ।
जो बीत चुका है, उसे पूरी तरह से मिटा देना, हटा देना तो संभव नहीं, पर सत्कर्मो की निरंतरता अवश्य संभव है ।
इस संबंध में पुराण की एक कथा है------- एक जुआरी था, उसमे सभी दुर्गुण थे । एक दिन उसने कपट से जुए में बहुत सारा धन जीता । इस जीत की खुशी में वह अपने हाथों में पान का बीड़ा, गंध और माला आदि सामग्री लेकर अपनी प्रियतमा को भेंट देने के लिये उसके घर की ओर दौड़ा ।
रात का समय था, रास्ते में उसके पाँव लड़खड़ाए और वह गिरकर बेहोश हो गया । जब उसे होश आया तो उसे बड़ा खेद व वैराग्य हुआ । उसने अपने पास की सारी सामग्री वहीँ पास के भगवती मंदिर में जाकर भवानी के चरणों में अर्पित कर दी ।
समय आने पर उसकी मृत्यु हो गई । यमदूत उसे ले गये । यमराज बोले--"अरे मूर्ख ! तू अपने पापों के कारण बड़े-बड़े नरकों में यातना भोगने योग्य है । " इस पर जुआरी ने कहा--" महाराज ! यदि मेरा कोई सत्कर्म हो तो उस पर भी विचार कर लीजिए । " इसके उत्तर में चित्रगुप्त ने कहा--" तुमने मरने से पहले थोड़ा गंधमात्र जगन्माता को अर्पित किया है, इसके फलस्वरूप तुझे तीन घड़ी इंद्र का सिंहासन प्राप्त होगा । " जुआरी ने कहा--" तब कृपा करके पहले मुझे पुण्य का ही फल प्राप्त कराया जाये । " उसके ऐसा कहने पर यमराज की आज्ञा से उसे स्वर्ग भेज दिया गया । देवगुरु ने इंद्र को समझाया कि तुम तीन घड़ी के लिये अपना सिंहासन जुआरी को दे दो । "
इंद्र के जाते ही जुआरी स्वर्ग का राजा बन गया । उसने सोचा अब तो जगन्माता आदिशक्ति के सिवाय अन्य कोई शरण नहीं । अब उसने करुणामयी माता के स्मरण के साथ अपने अधिकृत पदार्थों का दान करना प्रारंभ कर दिया---- ऐरावत हाथी--- अगस्त्य जी को दिया
उच्चैश्रवा अश्व--विश्वामित्र को, कामधेनु गाय----वसिष्ठ जी को
चिंतामणि रत्न----गालव जी को कल्पवृक्ष-----ऋषि कौडिन्य को दे दिया ।
इस तरह जब तक तीन घड़ियाँ समाप्त नहीं हुईं, वह भगवती का स्मरण करता हुआ दान करता रहा । जब इंद्र लौटकर आये तो देखा । स्वर्गपूरी तो ऐश्वर्यशून्य है । उन्होंने क्रोधित होकर कहा -"धर्मराज !आपने मेरा पद एक जुआरी को देकर बड़ा अनुचित कार्य किया, उसने सभी रत्न दान कर दिये, अमरावती सूनी पड़ी है । " इस पर धर्मराज हँसते हुए बोले----- " देवराज ! इतने दिनों तक इंद्र
रहते हुए भी आपकी आसक्ति नहीं गई, जुआरी का पुण्य आपके सौ यज्ञों से भी महान हुआ ।
'बड़ी भारी सत्ता मिल जाने पर भी जो प्रमाद में न पड़कर जगन्माता की भक्ति करते हुए सत्कर्म में तत्पर होते हैं, वे ही धन्य हैं । '
जुआरी अपने दान के कारण बिना नरक भोगे ही महादानी विरोचन पुत्र बलि के रूप में जन्मा । इस रूप में भी उसके दान की महिमा सबने गाई ।
विवेकहीन मनुष्य इस सत्य को देख नहीं पाते इसलिये वे दूसरों पर दोषारोपण करते हुए उनपर मिथ्या कलंक लगाते हैं । जबकि सच यह है कि जितना समय वे दोषारोपण करने में लगाते हैं . उतना समय यदि सत्कर्म करने में, ईश्वर का स्मरण करने में लगाएँ तो उनके पूर्वकृत कर्मो का सहज ही प्रायश्चित हो जाये ।
जो बीत चुका है, उसे पूरी तरह से मिटा देना, हटा देना तो संभव नहीं, पर सत्कर्मो की निरंतरता अवश्य संभव है ।
इस संबंध में पुराण की एक कथा है------- एक जुआरी था, उसमे सभी दुर्गुण थे । एक दिन उसने कपट से जुए में बहुत सारा धन जीता । इस जीत की खुशी में वह अपने हाथों में पान का बीड़ा, गंध और माला आदि सामग्री लेकर अपनी प्रियतमा को भेंट देने के लिये उसके घर की ओर दौड़ा ।
रात का समय था, रास्ते में उसके पाँव लड़खड़ाए और वह गिरकर बेहोश हो गया । जब उसे होश आया तो उसे बड़ा खेद व वैराग्य हुआ । उसने अपने पास की सारी सामग्री वहीँ पास के भगवती मंदिर में जाकर भवानी के चरणों में अर्पित कर दी ।
समय आने पर उसकी मृत्यु हो गई । यमदूत उसे ले गये । यमराज बोले--"अरे मूर्ख ! तू अपने पापों के कारण बड़े-बड़े नरकों में यातना भोगने योग्य है । " इस पर जुआरी ने कहा--" महाराज ! यदि मेरा कोई सत्कर्म हो तो उस पर भी विचार कर लीजिए । " इसके उत्तर में चित्रगुप्त ने कहा--" तुमने मरने से पहले थोड़ा गंधमात्र जगन्माता को अर्पित किया है, इसके फलस्वरूप तुझे तीन घड़ी इंद्र का सिंहासन प्राप्त होगा । " जुआरी ने कहा--" तब कृपा करके पहले मुझे पुण्य का ही फल प्राप्त कराया जाये । " उसके ऐसा कहने पर यमराज की आज्ञा से उसे स्वर्ग भेज दिया गया । देवगुरु ने इंद्र को समझाया कि तुम तीन घड़ी के लिये अपना सिंहासन जुआरी को दे दो । "
इंद्र के जाते ही जुआरी स्वर्ग का राजा बन गया । उसने सोचा अब तो जगन्माता आदिशक्ति के सिवाय अन्य कोई शरण नहीं । अब उसने करुणामयी माता के स्मरण के साथ अपने अधिकृत पदार्थों का दान करना प्रारंभ कर दिया---- ऐरावत हाथी--- अगस्त्य जी को दिया
उच्चैश्रवा अश्व--विश्वामित्र को, कामधेनु गाय----वसिष्ठ जी को
चिंतामणि रत्न----गालव जी को कल्पवृक्ष-----ऋषि कौडिन्य को दे दिया ।
इस तरह जब तक तीन घड़ियाँ समाप्त नहीं हुईं, वह भगवती का स्मरण करता हुआ दान करता रहा । जब इंद्र लौटकर आये तो देखा । स्वर्गपूरी तो ऐश्वर्यशून्य है । उन्होंने क्रोधित होकर कहा -"धर्मराज !आपने मेरा पद एक जुआरी को देकर बड़ा अनुचित कार्य किया, उसने सभी रत्न दान कर दिये, अमरावती सूनी पड़ी है । " इस पर धर्मराज हँसते हुए बोले----- " देवराज ! इतने दिनों तक इंद्र
रहते हुए भी आपकी आसक्ति नहीं गई, जुआरी का पुण्य आपके सौ यज्ञों से भी महान हुआ ।
'बड़ी भारी सत्ता मिल जाने पर भी जो प्रमाद में न पड़कर जगन्माता की भक्ति करते हुए सत्कर्म में तत्पर होते हैं, वे ही धन्य हैं । '
जुआरी अपने दान के कारण बिना नरक भोगे ही महादानी विरोचन पुत्र बलि के रूप में जन्मा । इस रूप में भी उसके दान की महिमा सबने गाई ।