पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ---- ' हमारा संघर्ष व्यक्तियों से नहीं , वृत्तियों से है और इसकी शुरुआत हमें स्वयं के जीवन से करनी है l ' महाभारत के युद्ध में अपने ही सगे - संबंधियों को सामने देख अर्जुन युद्ध से भागना चाहता था , तब भगवान कृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दिया और समझाया ---- ऐसा कर के तुम कहीं भी चैन से न बैठ सकोगे l पाप को हम न मारें , अधर्म , अनीति का संहार हम न करें , तो निर्विरोध स्थिति पाकर ये पाप , अधर्म व अनीति हमें मार डालेंगे l इसलिए जीवित रहने पर सुख और मरने पर स्वर्ग का उभयपक्षीय लाभ समझाते हुए उन्हें युद्ध करने के लिए प्रेरित किया l भगवान परशुराम का अवतार कहे जाने वाले गुरु गोविंदसिंह ने अपने समय की दुर्दशा का कारण जन - समाज की आंतरिक भीरुता को ही माना था l उनका निष्कर्ष था कि जब तक जन आक्रोश नहीं जागेगा , शौर्य और साहस की पुन: प्राण - प्रतिष्ठा न होगी , तब तक पददलित स्थिति से उबरने का अवसर नहीं मिलेगा l उन्होंने संघर्ष के लिए जनमानस को ललकारा l भगवान को असिध्वज और महालौह नाम दिए l गुरु गोविंदसिंह की तलवार केवल मार -काट का अभिप्राय नहीं समझाती , बल्कि यह सामर्थ्यपूर्ण संघर्ष का प्रतीक है l