28 September 2021

WISDOM -----

   पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  कहते  हैं ----  ' गुरु  तीन  तरह  के  होते  हैं   l   इनमे  पहली  श्रेणी  है   शिक्षक  की ,  जो    बौद्धिक  ज्ञान  देता  है  , इसके  पास  तर्कों  का , शब्दों  का  मायाजाल  होता  है   l   बोलने  में  प्रवीण   ऐसे  लोग  कई  बार  अपने   आप  को  गुरु  के  रूप  में  प्रस्तुत  करते  हैं   l  उनके  कथा -प्रवचन , लच्छेदार   वाणी   अनेकों  को  अपनी   ओर   आकर्षित  करती  है   l   ऐसों  का  मंतव्य   एक  ही  होता  है   कि   लोग  उनकी  सुने , उनकी  पूजा  करें   l  "  ऐसे  ही  एक  गुरु  की  कथा  आचार्य श्री    सुनाते   हैं  ------- एक  उच्च  शिक्षित  गुरु  ,  किसी  ख्यातिप्राप्त   संस्था  के  संचालक  थे   l  देश - विदेश  में  उन्हें    प्रवचन  के  लिए  आमंत्रित  किया  जाता  था  l   एक  बार  वे  विदेश   में  किसी  पागलखाने  में  गए   l   वहां  उन्हें  सुनने  वालों  में   कर्मचारियों  और  चिकित्सकों  के  साथ  पागलखाने  के  पागल  भी  थे   l   प्रवचन  करते  समय  इन  गुरु  महोदय  को   उस  समय   भारी  अचरज   हुआ  ,  जब  उन्होंने  देखा  कि   पागलखाने  के  सारे  पागल  उन्हें  बड़े  ध्यान  से  सुन  रहे  हैं   l   उन्होंने  इस  संबंध   में   अधीक्षक  से  कहा   कि   वे  जरा  इन  पागलों  से   पूछकर  बताएं  कि   उन्हें  मेरी  कौन  सी  बात    पसंद  आई   l  उनके  निर्देशानुसार  उन्होंने  पागलों  से  बात  की  और   उनके  पास  आए  l   गुरु  महोदय  में  भारी  उत्सुकता  थी  , बोले  बताइये  न   क्या  बातें  हुईं  l  " अधीक्षक  थोड़ा  हिचकिचाते  हुए  बोले  ----- " महोदय  !  आप  मुझे  क्षमा  करें  ,  ये  सभी  पागल  कह  रहे  थे   कि   ये  प्रवचन  करने  वाले   तो  बिलकुल  हम  लोगों  जैसे  हैं  ,  फरक  सिर्फ  इतना  है   कि   हम  लोग   यहाँ  भीतर  हैं   और  ये  बाहर  घूम  रहे  हैं   l  "   आचार्य श्री  कहते  हैं  दूसरे  प्रकार  के  गुरु   वे  होते  हैं  जिन्हे  भगवान   अपने  प्रतिनिधि  के  रूप  में  नियुक्त  करते  हैं   जैसे  रामकृष्ण  परमहंस ,  रमण  महर्षि ,  महर्षि  अरविन्द   l   और  तीसरी  श्रेणी  में  ईश्वर  स्वयं  हमारे  गुरु  होते  हैं   l 

WISDOM ------

  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  ------ "  '  दक्ष '   को  देवाधिदेव  महादेव  ने   उसकी  कुमार्गगामिता  का  दंड   उसका  मानवीय  सिर  काटकर  ,  बकरे  का  सिर   लगाकर  दिया  था   l   दक्ष  की  चतुरता  का  वास्तविक  स्वरुप  यही  था   l   आज  भी  ' दक्षों  '  ने  ---- चतुरों  ने  यही  कर  रखा  है   l   ये  तथाकथित  चतुर  लोग  समाज  के    मूर्द्धन्य    बने  बैठे    तिकड़म  को  ही   अपना  आधार  बनाये   हुए  हैं   l   दूसरों  के  सहारे  वे  छल - बल  से   आगे  बढ़ते   हैं  ,  ऊँचा  उठते  हैं   l   तप  और  त्याग  का  नाम  भी  नहीं  है   l   ऐसे  मूर्द्धन्य   लोगों  का  बाहुल्य   व्यक्ति  और  समाज  की   आत्मा  को  कुचल - मसल  रहा  है   l   यह  स्थिति  महाकाल  को  असह्य  है   l   आज  का  मानवीय  चातुर्य  ,  जो  सुविधा  - साधनों  के   अहंकार  में   अपनी  वास्तविक  राह   छोड़  बैठा  है  ,  वैसी  ही  दुर्गति  का  अधिकारी  बनेगा  ,  जैसा  की  दक्ष  का  सारा  परिवार  बना  था   l  "                                                 आचार्य  श्री  लिखते  हैं  ---- " कभी - कभी  ऐसा  समय  आता  है   कि   छूत   की  बीमारी  की  तरह  अनाचार  भी  गति  पकड़  लेता  है   और  अपने  आप  अमर  बेल  की  तरह  बढ़ने  लगता  है    l   गलतियां  दोनों  ओर   से  होती  हैं  -- अनाचारी  अपनी  दुष्टता  से  बाज  नहीं  आता  है   और  सताए  जाने  वाले   कायरता , भीरुता   अपनाकर   टकराने  की  नीति   नहीं  अपनाते   l   तब  स्रष्टा  को  भी  क्रोध  आता  है     और  जो  मनुष्य  नहीं  कर  पाता ,  उसे  स्वयं  करने  के  लिए  तैयार  होता  है   l  "      मनुष्य  सन्मार्ग  पर  चले  अन्यथा  शिवजी   का  तृतीय  नेत्र  खुलने  और  भगवान  कृष्ण   के  हाथ  में  सुदर्शन चक्र  आने  में  देर  नहीं  लगती   l