पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी कहते हैं ---- ' गुरु तीन तरह के होते हैं l इनमे पहली श्रेणी है शिक्षक की , जो बौद्धिक ज्ञान देता है , इसके पास तर्कों का , शब्दों का मायाजाल होता है l बोलने में प्रवीण ऐसे लोग कई बार अपने आप को गुरु के रूप में प्रस्तुत करते हैं l उनके कथा -प्रवचन , लच्छेदार वाणी अनेकों को अपनी ओर आकर्षित करती है l ऐसों का मंतव्य एक ही होता है कि लोग उनकी सुने , उनकी पूजा करें l " ऐसे ही एक गुरु की कथा आचार्य श्री सुनाते हैं ------- एक उच्च शिक्षित गुरु , किसी ख्यातिप्राप्त संस्था के संचालक थे l देश - विदेश में उन्हें प्रवचन के लिए आमंत्रित किया जाता था l एक बार वे विदेश में किसी पागलखाने में गए l वहां उन्हें सुनने वालों में कर्मचारियों और चिकित्सकों के साथ पागलखाने के पागल भी थे l प्रवचन करते समय इन गुरु महोदय को उस समय भारी अचरज हुआ , जब उन्होंने देखा कि पागलखाने के सारे पागल उन्हें बड़े ध्यान से सुन रहे हैं l उन्होंने इस संबंध में अधीक्षक से कहा कि वे जरा इन पागलों से पूछकर बताएं कि उन्हें मेरी कौन सी बात पसंद आई l उनके निर्देशानुसार उन्होंने पागलों से बात की और उनके पास आए l गुरु महोदय में भारी उत्सुकता थी , बोले बताइये न क्या बातें हुईं l " अधीक्षक थोड़ा हिचकिचाते हुए बोले ----- " महोदय ! आप मुझे क्षमा करें , ये सभी पागल कह रहे थे कि ये प्रवचन करने वाले तो बिलकुल हम लोगों जैसे हैं , फरक सिर्फ इतना है कि हम लोग यहाँ भीतर हैं और ये बाहर घूम रहे हैं l " आचार्य श्री कहते हैं दूसरे प्रकार के गुरु वे होते हैं जिन्हे भगवान अपने प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त करते हैं जैसे रामकृष्ण परमहंस , रमण महर्षि , महर्षि अरविन्द l और तीसरी श्रेणी में ईश्वर स्वयं हमारे गुरु होते हैं l
28 September 2021
WISDOM ------
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं ------ " ' दक्ष ' को देवाधिदेव महादेव ने उसकी कुमार्गगामिता का दंड उसका मानवीय सिर काटकर , बकरे का सिर लगाकर दिया था l दक्ष की चतुरता का वास्तविक स्वरुप यही था l आज भी ' दक्षों ' ने ---- चतुरों ने यही कर रखा है l ये तथाकथित चतुर लोग समाज के मूर्द्धन्य बने बैठे तिकड़म को ही अपना आधार बनाये हुए हैं l दूसरों के सहारे वे छल - बल से आगे बढ़ते हैं , ऊँचा उठते हैं l तप और त्याग का नाम भी नहीं है l ऐसे मूर्द्धन्य लोगों का बाहुल्य व्यक्ति और समाज की आत्मा को कुचल - मसल रहा है l यह स्थिति महाकाल को असह्य है l आज का मानवीय चातुर्य , जो सुविधा - साधनों के अहंकार में अपनी वास्तविक राह छोड़ बैठा है , वैसी ही दुर्गति का अधिकारी बनेगा , जैसा की दक्ष का सारा परिवार बना था l " आचार्य श्री लिखते हैं ---- " कभी - कभी ऐसा समय आता है कि छूत की बीमारी की तरह अनाचार भी गति पकड़ लेता है और अपने आप अमर बेल की तरह बढ़ने लगता है l गलतियां दोनों ओर से होती हैं -- अनाचारी अपनी दुष्टता से बाज नहीं आता है और सताए जाने वाले कायरता , भीरुता अपनाकर टकराने की नीति नहीं अपनाते l तब स्रष्टा को भी क्रोध आता है और जो मनुष्य नहीं कर पाता , उसे स्वयं करने के लिए तैयार होता है l " मनुष्य सन्मार्ग पर चले अन्यथा शिवजी का तृतीय नेत्र खुलने और भगवान कृष्ण के हाथ में सुदर्शन चक्र आने में देर नहीं लगती l