3 July 2020

WISDOM --- विचारों का परिष्कार जरुरी है

संसार  में  अनेक  महान  विद्वान्  दार्शनिक , समाज - सुधारक  हुए  ,  जिन्होंने  समाज  में  फैली  हुई  बुराइयों  को  दूर  करने   के  लिए   जीवन  भर  संघर्ष  किया  ,  अपने  जीवन  का  बलिदान  भी  किया    लेकिन  बुराइयाँ   दूर  नहीं  हुई  l   मनुष्य  ने  अपनी  बुद्धि  का  , प्रतिभा  का  सदुपयोग  करना  नहीं  सीखा  l   जो  समस्याएं , सामाजिक  बुराइयाँ   युगों  पहले  थीं  , वे  आज  भी  हैं  l   रंग , धर्म  , लिंग ,  जाति , अमीर - गरीब , ऊंच - नीच ,     आदि    आधारों  पर  आज  भी  संसार  में  भेदभाव  है   l   जो  अपने  को  श्रेष्ठ  समझते  हैं  वे  दूसरे  पक्ष  को  मिटा  डालना  चाहते  हैं   l   ऐसा  प्रतीत  होता  है   कि   विज्ञानं  ने  मनुष्य  को  जो  इतनी  सुख - सुविधाएँ  प्रदान   की  और  यातायात   और   संचार  क्रांति  ने   दूरियां  समाप्त  कर  दी  , दुनिया   बहुत  छोटी  हो  गई   लेकिन   इनसे  निकलने  वाली  हानिकारक  तरंगों  ने   न  केवल  पर्यावरण  को  प्रदूषित  किया   बल्कि  मनुष्य  के  हृदय  की  संवेदना  को  भी   सुखा    दिया  l   जब  तक  विकास  नहीं  हुआ  था  ,  लोगों  में  प्रेम  था ,  सहयोग  था  , हृदय  में  संवेदना  थी   लेकिन  इस  विकास  ने  मनुष्य  को  हृदयहीन  बना  दिया  l  अब  अत्याचार  करने ,  दूसरों  को  अपने  आधीन  बनाने  के  तरीके  भी  आधुनिक  हो  गए  हैं   l   अपनी  लोभ - लालसा   और  तृष्णा  के  कारण  वैज्ञानिक  आविष्कारों  का   प्रयोग  भी  मनुष्य  अपने  स्वार्थ  पूर्ति  के  लिए  करने  लगा  है  l
जब  मनुष्य  स्वयं  जागेगा  और  समझेगा  कि     ये  भेदभाव  उचित  नहीं  है  ,  कमजोर  को  मिटाने   के  प्रयासों  की  प्रतिक्रिया    एक  दिन  उन्हें  भी  मिटा  देगी  l  जब ' जियो  और  जीने  दो '  की  भावना   जागेगी  तभी   मनुष्य  सच्चे  अर्थ  में  मनुष्य  होगा  l

WISDOM ----

  बंगाल  के  प्रसिद्ध   उपन्यासकार  श्री  शरतचंद्र  ने  देशबंधु  दास  के  संबंध   में   एक  लेख  ' स्मृति  कथा '   वसुमती  नामक    मासिक  पत्रिका  में  प्रकाशित  कराया  था  जिसमे  उन्होंने  देशबंधु  के  जीवन  प्रसंगों  को  प्रकट  करते  हुए   लिखा    था ---- " पराधीन  जाति   का  एक  बड़ा  अभिशाप  यह  होता  है  कि  हमको  अपने  मुक्ति  संग्राम  में   विदेशियों  की  अपेक्षा   अपने  देश  के  लोगों  से  ही   अधिक  लड़ाई  लड़नी  पड़ती  है  l  "
     पराधीनता   मानसिक  हो  तो  स्थिति  और  भी  विकट   हो  जाती  है  l   मानसिक  रूप  से  पराधीन  व्यक्ति   अपनी  उपलब्धियों , अपने  गुणों  को  नहीं  देखता   वह  दूसरों    की  हर  बात  को  श्रेष्ठ  समझता  है   और  ऐसे  लोगों  की  जब  भीड़  इकट्ठी  हो  जाती  है   तब  वे  अपनी  सांस्कृतिक  विशेषताओं , अपनी  प्राचीन  उपलब्धियों  को  भी  भूलकर   विदेशियों  को  महत्व   देते  है  l  यह  भी  दुर्बुद्धि  है   कि    जिस  धरती  पर   जन्म  लिया  ,  जिस  वायुमंडल  में  सांस  लेकर  बड़े  हुए ,  जिस  प्राकृतिक  सम्पदा  के  संरक्षण  में  रहते  हैं  ,  उसे  श्रेष्ठ  न  समझकर  दूसरों  द्वारा  थोपी  गई  चीजों  को  हृदय  से  लगाते   हैं  l   अपनी  चीज  का  लाभ  नहीं  देखते   और  दूसरे  के  द्वारा  होने  वाली  हानि  को  ख़ुशी  से  स्वीकारते  हैं  l   जागरूक  होने  पर  ही  स्वार्थ  में  डूबी  दुनिया   के  चित्र  को  समझ  सकते  हैं  l