28 November 2020

WISDOM -----

   किसी  समय  महर्षि  रमण   से  पश्चिमी  विचारक  पॉल  ब्रन्टन   ने  पूछा  था  ---- " महत्वाकांक्षा  की  जड़  क्या  है  ? "  तब  महर्षि    हँसकर  बोले ---- " हीनता  का  भाव ,  अभाव  का  बोध  l  "  पं. श्रीराम  शर्मा  आचार्य जी  लिखते  हैं  --- ' मनुष्य   जिन  बड़ी  से  बड़ी  बीमारियों  और  विक्षिप्तताओं   से  परिचित  है  ,  महत्वाकांक्षा  से  बड़ी  बीमारी   इनमें  से  कोई  नहीं  है  l     हीनता  स्वयं  से  छुटकारा  पाने  की  कोशिश  में   महत्वाकांक्षा  बन  जाती  है  l   बहुमूल्य  से  बहुमूल्य  साज - सज्जा  के  बावजूद   यह  न  तो  मिटती   है  और  न  ही  नष्ट  होती  है  l   थोड़ी  देर  के  लिए  यह  हो  सकता  है  कि   वह  दूसरों  की  दृष्टि  से  छिप  जाए ,   लेकिन अपने  आपको  लगातार  उसके  दर्शन  होते  रहते  हैं  l  किसी  चकाचौंध  वाली  सफलता  के   मिलने  के  बावजूद  यह  हीनता  का  भाव  नष्ट  नहीं  होता  l   '  आचार्य श्री   आगे  लिखते  हैं  ---- हीन   भाव  की  ग्रंथि  से  पीड़ित  चित्त    उसे  छिपाने  और  भूलने  की  कोशिश  में  महत्वाकांक्षा  से  भर  जाता  है  l   महत्वाकांक्षा  के  ज्वर  से  पीड़ित  व्यक्ति  के  पास  सफलता  तो  आ  जाती  है  ,  पर  हीनता  तो  मिटती     नहीं   l   विश्व  का  ज्यादातर  इतिहास  ऐसे  ही  बीमार  लोगों  से  भरा  पड़ा  है  l   तैमूर , सिकंदर  या  हिटलर   इसी  ज्वर  से  पीड़ित  थे  l   आचार्य श्री  कहते   हैं ---  थोड़े  बहुत  रूप  में  इस   बीमारी  के  कीटाणु  सब  में  हैं  l  प्राय:  सभी   इस रोग  से  संक्रमित  हैं  l मनुष्य - मनुष्य  के  बीच   सांसारिक  संघर्ष  का  कारण  यही  है   और  युद्ध  इसी   का  व्यापक  रूप  है  l