किसी समय महर्षि रमण से पश्चिमी विचारक पॉल ब्रन्टन ने पूछा था ---- " महत्वाकांक्षा की जड़ क्या है ? " तब महर्षि हँसकर बोले ---- " हीनता का भाव , अभाव का बोध l " पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी लिखते हैं --- ' मनुष्य जिन बड़ी से बड़ी बीमारियों और विक्षिप्तताओं से परिचित है , महत्वाकांक्षा से बड़ी बीमारी इनमें से कोई नहीं है l हीनता स्वयं से छुटकारा पाने की कोशिश में महत्वाकांक्षा बन जाती है l बहुमूल्य से बहुमूल्य साज - सज्जा के बावजूद यह न तो मिटती है और न ही नष्ट होती है l थोड़ी देर के लिए यह हो सकता है कि वह दूसरों की दृष्टि से छिप जाए , लेकिन अपने आपको लगातार उसके दर्शन होते रहते हैं l किसी चकाचौंध वाली सफलता के मिलने के बावजूद यह हीनता का भाव नष्ट नहीं होता l ' आचार्य श्री आगे लिखते हैं ---- हीन भाव की ग्रंथि से पीड़ित चित्त उसे छिपाने और भूलने की कोशिश में महत्वाकांक्षा से भर जाता है l महत्वाकांक्षा के ज्वर से पीड़ित व्यक्ति के पास सफलता तो आ जाती है , पर हीनता तो मिटती नहीं l विश्व का ज्यादातर इतिहास ऐसे ही बीमार लोगों से भरा पड़ा है l तैमूर , सिकंदर या हिटलर इसी ज्वर से पीड़ित थे l आचार्य श्री कहते हैं --- थोड़े बहुत रूप में इस बीमारी के कीटाणु सब में हैं l प्राय: सभी इस रोग से संक्रमित हैं l मनुष्य - मनुष्य के बीच सांसारिक संघर्ष का कारण यही है और युद्ध इसी का व्यापक रूप है l