12 April 2021

WISDOM -----

   रवीन्द्रनाथ  टैगोर   सागर  की  तरह   धीर  और  गंभीर  व्यक्ति  थे  l   वे  असामान्य  व्यक्ति  थे  ,  उनको  न  लाभ  का  लोभ  था   और  न  घाटे  में  अप्रसन्नता  l   बात  उन  दिनों  की  है   जब  उनके  जूट   के  व्यवसाय  में    कई  लाख  रूपये  का  घाटा   हो  गया  था   l   कोई  सामान्य  व्यक्ति   होता तो   रोते , कलपते ,  बीमार  पड़ते  ,  -भाग  दौड़  मचाकर  घाटे  को   पूरा  करने  का  प्रयत्न  करता    लेकिन  ऐसी  विषम  घड़ी   में   वह  एक  ऐसे   प्रतिष्ठान  की  स्थापना  की    बात  सोच  रहे  थे    जो  अपनी  भारतीय  कला  व  संस्कृति  को   सुरक्षित  व  ज्योतिर्मय   रख  सके   l   कई   लाख  रूपये  की  प्रस्तावित  योजना  थी   l     किसी  ने  पूछा  --- प्रारूप  तो  तैयार  है  पर  पैसा  कहाँ  से  आएगा   ?  उन्होंने    बोलपुर  में  शांतिनिकेतन  की  स्थापना  के  लिए  अपनी  सारी   सम्पति ,   जगन्नाथपुरी     वाला  मकान  ,  पत्नी  के  आभूषण  ,  अपने  पास  की  कई   कीमती  वस्तुएं , पुस्तकों  का  स्टॉक   आदि   बेच   डाला      अपनी  बहुमूल्य  रचना  ' गीतांजलि '  के  लिए   नोबेल  पुरस्कार   में  मिले  सवा लाख  रूपये  भी   खर्चा  चलाने   के  लिए  संस्था  को  दे  दिए  l   फिर  जब  धन  की  कमी  पड़ी     तो  वे   एक  ' अभिनय  मंडली '  बनाकर   भ्रमण  करने  के  लिए  निकले    और  अनेक  बड़े  नगरों    में   प्रदर्शन   कर  के  संस्था  के  लिए  धन  एकत्रित  किया   l    महाकवि  के  परिश्रम  एवं   त्याग  भावना  से    इस  संस्था  की   निरंतर  उन्नति  होती  गई   l   फिर  इसी  के  अंतर्गत  एक  और  शाखा  ' विश्व भारती '   की  स्थापना  की  गई   ,  जिसमें  संसार  भर  के   विभिन्न  देशों  के  विद्दार्थी  आकर    उसी   प्रकार ज्ञान  प्राप्त  करने  लगे   जिस  प्रकार  प्रकार   प्राचीन  काल  में   नालंदा  और  तक्षशिला   आदि  विद्दालयों  में    विद्दार्थी  ज्ञान  प्राप्ति  के  लिए  आया  करते  थे   l  पं. जवाहरलाल  नेहरू   ने  इस  शिक्षा  संस्था   के संबंध   में  कहा  था  ----- " जिसने  शान्ति - निकेतन   नहीं  देखा  उसने  हिंदुस्तान   नहीं  देखा  l  "