17 November 2020

WISDOM ------

 मनुष्य   लोभ - लालच , ईर्ष्या - द्वेष  और  कामना - वासना  जैसी  मानवीय  कमजोरियों  में  इस  तरह  फँसा   हुआ  है  कि   सामने  ईश्वर  भी  हो ,  साक्षात्  अवतार  का  साथ  भी  मिले   तो  भी  वह  उन्हें  पहचान  नहीं  पाता  l   अपने  बहुमूल्य  जीवन  को  व्यर्थ  गँवा  देता  है  l ---- हृदयराम  मुखोपाध्याय  , रामकृष्ण  परमहंस  के  साथ  पच्चीस  वर्ष  रहे  l   वे  ठाकुर  से  मात्र  चार  वर्ष  छोटे  थे  l   बचपन  में  वे  ठाकुर  के  साथ  खेले  भी  थे  ,  पर  उनकी  आध्यात्मिक  विभूति  पर  उनका  ध्यान  कभी  नहीं  गया  l  कलकत्ता  में  उनके  मामा  परमहंस जी  एक  मंदिर  के  पुजारी  बन  गए  ,  यह  सुनकर  वे  भी  कलकत्ता  आ  गए  l  समाधि   की  स्थिति  में  उनको  सँभालने  ,  उन्हें  खाना  बनाकर  देने   आदि  सारी  जिम्मेदारी   उनने   संभाल   ली  l   स्वयं  ठाकुर  मानते   थे कि  हृदय  ने  उनकी  खूब  सेवा  की  l दक्षिणेश्वर  एक  प्रकार  से    ईश्वरत्व  को  प्राप्त  करने  वाले  जिज्ञासुओं  की  स्थली  बन  गया  l   हृदयराम  का  व्यवहार  धीरे - धीरे  बदलता  गया  l   शरीर  उनका  बड़ा  ताकतवर  था  l   खूब  खाते   थे , जिसकी  कोई  कमी  न  थी  l   दंड  भी  पेलते  थे  l   वे  रामकृष्ण  से  रुखा  बोलने  लगे  , कभी - कभी  हाथ  भी  चला  देते  l  कभी  वे  उनकी  नक़ल  बनाते  l   उनका  अहंकार  बढ़ता  चला  गया   l   अपने  व्यवहार  के  चलते   मई  1881   में  उन्हें  दक्षिणेश्वर  छोड़ना  पड़ा  l   एक  बार  वे  श्री रामकृष्ण  से  मिलने  आए ,  पर  उन्हें  जाना  पड़ा  l  बाद  में  हृदय  ने   कुलीगिरी  की ,  स्वास्थ्य  गिरता  चला  गया   एवं  1899   में  उनका  निधन  हो  गया  l  उनका  जीवन  अभिशप्त  ही  रहा  ,  जबकि  उन्हें  साक्षात्  अवतार  का  साथ  मिला  l 

WISDOM ------

 तुलसीदास  जी  ने   रामचरितमानस   में  लिखा  है  ---- ज्ञानिन  कर  चित्त   अपहरई  l   हरियाई   विमोह   मन  करई   l '   यानि  महामाया    महाज्ञानियों  के  चित्त  का  भी  हरण  कर  लेती  हैं  और  उनके  मन  को   मोह  में  डाल   देती  हैं   l  ----- इस  प्रसंग   की व्याख्या  करने  वाली  कथा   जो  सत्य  घटना  पर  आधारित  है  ' अखण्ड   ज्योति  '  में प्रकाशित  हुई  , इस  प्रकार  है ------ भगवान  श्रीराम  की  पावन   जन्म  भूमि  अयोध्या  में  श्रीराम  कथा  चल  रही  थी  l   एक  वृद्ध  संत   जो  भगवान  के  अनन्य  भक्त  थे  ,  कथा  सुना   रहे थे   l   श्रोताओं  में  अनेक  संत - महात्मा  भी  थे   l   इनमे  एक  युवा  संत   जिनकी  आयु  लगभग  चौबीस  वर्ष  होगी  , कथा  सुन  रहे  थे  , उनका  नाम  था  अनुभवानन्द  सरस्वती   l   इनके  ज्ञान , तप , बोध   का सब  आदर  करते  थे  l   इस  प्रसंग  --ज्ञानिन ------  पर  चर्चा  होने  पर   युवा  संत अनुभवानंद   ने  आपत्ति  उठाई  , बोले --- " यहाँ  तुलसी  बाबा  गलत  कह  गए  l   भला  ज्ञानी  को  व्यामोह  कैसा   ?    महामाया  तो  कभी  भी  ज्ञानियों  के  चित्त   का स्पर्श  भी  नहीं  कर  सकतीं  l   और  जिसके  चित्त   का स्पर्श  महामाया  कर  सकें   उसे  ज्ञानी  नहीं  कहा  जा  सकता  l   "  उनके  इस  कथन  पर  कथावाचक  संत  बोले  --- " महाराज  ! आप  अपने  को  क्या  मानते  हैं  ? "  इस  प्रश्न  पर  मुखर  होकर  युवा  संत  बोले  --  " निश्चित  रूप  से  ज्ञानी  l  ऐसा  ज्ञानी  , जो  महामाया  के  प्रभाव  से  सर्वथा  मुक्त  है  l "  उनकी  इस  बात  पर  कथावाचक  संत  ने  कहा  ---- "  अब  ऐसे  में  मैं  क्या  तर्क - वितर्क  करूँ   l   बस ,  मैं  तो  भगवती  से  यही  प्रार्थना  करता  हूँ   कि   गोस्वामी जी  महाराज  की   इस  चौपाई  का  अर्थ  वही  आपको  समझाएं   l  "    बात  ख़त्म  हो   गई  और  काफी  समय  बीत  गया  l   इस  बीच  युवा  संत  अनुभवानंद   एक  वृद्ध  संत  के  साथ  नर्मदा  परिक्रमा   के  लिए  निकले   l   परिक्रमा - पथ  पर  एक  गाँव  आया  ,  वहां  के  जमींदार  ने   दोनों  संतों  की  खूब  आवभगत  की   और  बाद  में  वृद्ध  संत  की  विदा  की  और  युवा  संत  को  रोक  लिया   l    युवा संत  भी  इसे   भक्ति मानकर  रुक  गए  l   एक  दिन  दोपहर  में  जब  संत  विश्राम  कर  रहे  थे       तो जमींदार   की  युवा  पुत्री     उनके  पाँव  दबाने  लगी   l   नींद   खुलने  पर संत   ने आपत्ति  जताई   l    लेकिन   कन्या  का सौंदर्य , जमींदार   की   मनुहार   के  साथ   लोभ ,  मोह   और भय   सबने  उन्हें  घेर    लिया l   अंतत:  जमींदार   की कन्या  उनकी  पत्नी   बन गई   और   एक वर्ष  में   वे  एक सुन्दर   बालक   के  पिता बन    गए   l   लगभग   तीन  वर्ष  बाद   उनका  मोह  भंग    हुआ   और  वे  पुन:  अयोध्या  लौटे  l   वहां  वही  राम कथा    का  पुराना  प्रसंग  चल  रहा   था   l   अब  वह  महामाया  के  प्रभाव   से परिचित   हो  चुके  थे   ,  उन्होने    सिर   नवाकर    कथावाचक  संत   से क्षमा  मांगी   और   कहा ----- "  निःसंदेह   तुलसी  बाबा   सही   हैं  l  महामाया   ज्ञानियों   के  भी   चित्त    को बलात  हरण  कर  के    मोह   में डाल   देती   हैं  l ,  केवल   उनकी भक्ति    और    उनकी  कृपा  से   ही   इस  प्रभाव   से  मुक्ति   संभव   है    l