स्वामी विवेकानन्द कहते हैं---- " वर्तमान समय में हम कितने ही राष्ट्रों के संबंध में जानते हैं, जिनके पास विशाल ज्ञान का भंडार है, परन्तु इससे क्या, वे बाघ की तरह नृशंस हैं, बर्बर हैं क्योंकि उनका ज्ञान संस्कार में परिणत नहीं हुआ है । सभ्यता की तरह ज्ञान भी चमड़े की ऊपरी सतह तक सीमित है, छिछला है और खरोंच लगते ही नृशंस रूप में जाग उठता है | "
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं ------ " हमें अपने विशाल राष्ट्र के लिए ऐसी शिक्षा नीति बनानी होगी जिसमे शिक्षा और विद्दा, सभ्यता और संस्कृति का सचमुच मेल हो । "
जब हम अंगरेजों के गुलाम थे । उस गुलामी को कैसे चिरस्थायी बनाया जाये, इस पर लार्ड मैकाले ने 2 फरवरी 1835 को ब्रिटिश संसद में भाषण दिया, जिसका सार-अंश है------- मैकाले ने कहा ----
" मैंने भारत के हर क्षेत्र का भ्रमण किया है । वहां एक भी भिखारी या चोर मुझे देखने को नहीं मिला । वहां अभावग्रस्त भी देने में विश्वास रखता है । मैंने वहां बेशुमार दौलत देखी है । उच्च नैतिक मूल्यों को कण-कण में संव्याप्त देखा है । मैं नहीं समझता कि हम ऐसे देश के नागरिकों पर शासन कर पाएंगे । हाँ ! यह तभी संभव, जबकि हमारी मूल धुरी उसके मेरुदंड, उसकी संस्कृति एवं आध्यात्मिक धरोहर पर आघात करें और उसके लिए मैं प्रस्ताव रखता हूँ कि हम भारत की चिरपुरातन शिक्षण प्रणाली को , उसकी संस्कृति को बदल डालें । यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो भी कुछ विदेशी है, इंगलिश सभ्यता से आया है वह उससे श्रेष्ठ है जो उनके पास है तो वे अपना आत्मगौरव खो बैठेंगे । धीरे-धीरे उनकी संस्कृति, गौरव-गरिमा का ह्लास होता चला जायेगा और वे वही बन जायेंगे, जैसा हम उन्हें चाहते हैं------ एक पूरी तरह हमारा गुलाम देश, पूर्णत: हमारे-हमारी इंग्लिश सभ्यता के अधीन वृहत्तर भारत । "
अंग्रेज चले गये किन्तु अंग्रेजी हमारी शिक्षा, शिक्षण संस्थाओं कि नस-नस में भरी है । शिक्षा का व्यवसायीकरण कर दिया गया है । ऐसी शिक्षा राष्ट्र निर्माण का माध्यम तो क्या बनेगी, वह तो एक भ्रष्ट एवं मुनाफाखोर पीढ़ी तैयार करने का काम कर रही है ।
आज की सबसे बड़ी जरुरत संस्कृति को पुनर्जीवित करने की है । शिक्षा ऐसी हो जिससे विद्दार्थी आत्मनिर्भर होने के साथ अपने राष्ट्र व समाज के लिए उपयोगी बन सके ।