एक व्यक्ति के मरने का समय आया तो देवदूत उसे लेने पहुंचे l व्यक्ति ने जीवन में पुण्य भी किए थे और पाप भी l इसलिए देवदूत उसे एक पुस्तक हाथ में देते हुए बोले ---- " तुम्हारे पुण्य कर्मों के बदले तुम्हे यह पुस्तक देते हैं l यह नियति की पुस्तक है , इसमें सारे प्राणियों का भाग्य लिखा है , तुम चाहो तो इसमें कोई भी एक परिवर्तन अपने पुण्य कर्मों के बदले में कर सकते हो l " उस व्यक्ति ने पुस्तक के पन्ने पलटने प्रारम्भ किए तो उसमें अपना पन्ना देखने से पूर्व वह दूसरों के भाग्य के पन्ने पढ़ने लगा l जब उसने अपने पड़ोसियों के भाग्य के पन्ने देखे तो उनका भाग्य देखकर उसका मन विद्वेष से भर उठा l वह मन ही मन बोला ---- मैं कभी इन लोगों को इतना सुखी नहीं होने दूंगा और क्रोध में भरकर वह उनके पन्नों में फेर - बदल करने लगा l देवदूतों के द्वारा दिए गए निर्देश के अनुसार परिवर्तन एक ही बार किया जा सकता है l अत: जैसे ही उसने एक बदलाव किया , देवदूत ने वह पुस्तक उसके हाथ से ले ली l अब वह व्यक्ति बहुत पछताया , क्योंकि यदि वह चाहता तो अपनी नियति में सुधार कर सकता था , पर ईर्ष्यावश वह दूसरों की नियति बिगाड़ने में लग गया और यह अवसर गँवा बैठा l मनुष्य ऐसे ही जीवन में आये बहुमूल्य अवसरों को व्यर्थ गँवा देता है l
11 February 2021
WISDOM -----
राजा जनक अपनी साज - सज्जा के साथ मिथिलापुरी के राजपथ से होकर गुजर रहे थे l उनकी सुविधा के लिए सारा रास्ता पथिकों से शून्य बनाने में राजकर्मचारी लगे हुए थे l राजा की शोभा यात्रा निकल जाने तक यात्रियों को अपने आवश्यक काम छोड़कर जहाँ - तहाँ रुका रहना पड़ रहा था l अष्टावक्र को हटाया गया तो उन्होंने हटने से इनकार कर दिया और कहा ---- ' प्रजाजनों के आवश्यक कार्यों को रोककर अपनी सुविधा का प्रबंध करना राजा के लिए उचित नहीं है l राजा अनीति करे तो प्रजा का कर्तव्य है कि उसे रोके और समझाए l इसलिए आप राजा तक मेरा सन्देश पहुंचाएं और कहें कि अष्टावक्र ने अनुपयुक्त आदेश को मानने से इनकार कर दिया है l वे हटेंगे नहीं और राजपथ पर ही चलेंगे l राज्याधिकारी कुपित हुए और अष्टावक्र को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए l राजा जनक ने सारा किस्सा सुना तो वे बहुत प्रभावित हुए और कहा ---- ' इतने तेजस्वी व्यक्ति जहाँ मौजूद है, जो राजा को सत्पथ दिखाने का साहस करते हैं तो वो देश धन्य है l ऐसे निर्भीक व्यक्ति राष्ट्र की सच्ची सम्पति हैं l उन्हें दंड नहीं सम्मान दिया जाना चाहिए l " राजा जनक ने अष्टावक्र से क्षमा मांगी और कहा ----- " मूर्खतापूर्ण आज्ञा चाहे राजा की ही क्यों न हों , तिरस्कार के योग्य हैं l आपकी निर्भीकता ने हमें अपनी गलती समझने और सुधारने का अवसर दिया l आज से आप राजगुरु रहेंगे और इसी निर्भीकता के साथ न्याय पक्ष का समर्थन करते रहने की कृपा करेंगे l " अष्टावक्र ने प्रार्थना जनहित में स्वीकार की l